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पचपन
आमुख धार्मिक मैत्री उत्पन्न होती है। जैनशास्त्रों में कहा है, जो हीनाचरण करता है, वह कुगति जाता हैं। अपने को जैन कहनेवाला यदि पापाचरणी है, तो वह आत्मा उन्नतिपूर्ण स्थिति को प्राप्त नहीं करेगी, क्योंकि व्यक्ति का भविष्य उसके उज्ज्वल अथवा मलिन भावों पर आश्रित है। एक जैन महर्षि कहते हैं.
इंद्रियाणि वशे यस्य यस्य दुष्टं न मानसम् । आत्मा धर्मरतो यस्य सफलं तस्य जीवितम् ॥
उस जीव का जीवन सफल है, जिसके वश में इन्द्रियां हैं, जिसका हृदय दुष्ट नहीं है तथा जो सदा धर्म-कार्यो में संलग्न रहता है।
यदि शान्त भाव से वैदिक विद्वान् अपने साहित्य को देखें, तो उनके हृदय में जैनधर्म, जैन देवता तथा जैन साधुओं के प्रति आदर तथा प्रेम-भाव सहज ही उत्पन्न होगा। जैन दिगम्बर मूर्तियाँ काम, क्रोध तथा लोभ रूप नरक के कारण त्रिविधि दोषों से रहित हो, अकाम, अक्रोध तथा अलोभ वृत्ति की स्पष्ट प्रतीक हैं। जैन साधु जब दिगम्बर स्थिति को प्राप्त करते हैं, तब वे गीता की परिभाषा के अनुसार ब्राह्मी स्थिति सम्पन्न “ स्थितप्रज्ञ” सत्पुरूष के रूप में सम्मान के योग्य हो जाते हैं। उनका आदर न करके उनके अभद्र भावों को व्यक्त करना स्वधर्म की पवित्र आज्ञा का उल्लंघन करना क्या नहीं है ? दिगम्बर जैन मुनि परमशान्ति स्वरूप, सर्वकामनाओं से मुक्त तथा पाणिपात्र महातपस्वी होते हैं । उन परम ब्रह्मचर्य से समलंकृत साधुओं का विहार सुभिक्ष तथा समृद्धि का कारण कहा गया है। स्थितप्रज्ञ का स्वरूप गीता में इन शब्दों में कहा गया है (अध्याय २, श्लोक ५५ ) - प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् । आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥
अर्थ : हे अर्जुन ! यह पुरूष मनोगत सर्व कामनाओं का त्याग करता है, उस काल में आत्मा के द्वारा ही आत्मा में सन्तुष्ट हुआ स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।
शीत, उष्ण, क्षुधा, प्यास, दंश, मशक, दिगम्बरत्व आदि की कठिनाइयों को सहन करने वाले जैन मुनिराज के विषय में यह गीता की उक्ति कितनी सत्य तथा उपयुक्त है, यह विचारवान् व्यक्ति सोच सकता है (गीता, अध्याय २, श्लोक ५६ ) - दुखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतराग - भय - क्रोधः स्थितधीर्मु निरुच्यते ॥
अर्थ: जो दुःखों से घबराते नहीं, सुखों में जिनकी तनिक भी इच्छा नहीं है, जो राग, भय तथा क्रोध से विमुक्त है, वह स्थितप्रज्ञ मुनि कहा गया है -
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सामान्य श्रेणी का मानव तो श्रेयोमार्ग में संलग्न साधुओं तथा तपस्वियों के जीवन से प्रकाश पाता हुआ गृहस्थ जीवन व्यतीत करता है, किन्तु उसकी आकांक्षा भर्तृहरि
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