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________________ चौपन चारित्र चक्रवर्ती तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता। भवंति संपदं दैवीमभिजातस्य भारत । अर्थ : हे अर्जुन ! अभय, अन्तःकरण की शुद्धता, ज्ञानयोग में दृढ़स्थिति, दान, इन्द्रियों के दमन, पूजा, स्वाध्याय, तप, सरलता, अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शांति, निन्दा न करना, सर्वजीवों में दया, इन्द्रियों की लोलुपता का त्याग, कोमलता, लज्जा, चंचलता का त्याग, तेज, क्षमा, धैर्य, अन्तरङ्ग तथा बहिरङ्ग पवित्रता, शत्रुभाव का त्याग, अभिमान का अभाव, ये दैवी सम्पत्ति प्राप्त पुरुष के लक्षण कहे गए हैं। आत्मा का पतन कराने वाली सामग्री आसुरी सम्पत्ति कही गई है। कोई भी व्यक्ति हो, कितना भी बड़ा, लोकमान्य हो, धर्म के क्षेत्र में भी जिसने अपना आसन जमाया हो, यदि उसमें आसुरी सम्पत्ति का विष है, तो उसकी कोई भी रक्षा नहीं कर सकता है। बड़े-बड़े धर्मो के सत्ताधीश बनने वालों में ये विकार पाए जाते हैं। आत्महितार्थ इस गीतोक्त सत्य को सभी धर्मवालों को हृदय में स्थान देना चाहिए। गीता में कहा है (अध्याय १६, श्लोक ४) दंभो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च। अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ संपदमासुरीम् ॥ अर्थ : हे अर्जुन ! दम्भ (पाखण्ड), घमण्ड, अभिमान, क्रोध, कठोर वाणी तथा अज्ञान ये आसुरी सम्पत्ति प्राप्त व्यक्ति के चिन्ह हैं। यदि धार्मिकों के हृदयों में दैवी तथा आसुरी सम्पत्ति का स्वरूप अंकित हो, तो जैसे लोमहर्षक धार्मिक अत्याचार पूर्व में हुए हैं, उनकी पुनरावृत्ति न हो। यह भ्रम है कि धर्म के नाम पर किए गए क्रूर कर्म तथा आसुरी आचरण उन्नति प्रदान करेंगे। श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था (अध्याय १६, श्लोक २०) आसुरी योनिमापन्नामूढ़ा जन्मनि जन्मनि । मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम् ॥ अर्थ : हे कौन्तेय ! मूढ़ प्राणी जन्म-जन्मांतरों में आसुरी योनि को प्राप्त हुए। वे मुझको न प्राप्त कर अत्यन्त अधम नरकादि गतियों को प्राप्त होते हैं। इस ज्ञान-ज्योति के उज्ज्वल प्रकाश में उन लोगों का जीवन देखा जा सकता है, समझा जा सकता है, जो अहिंसा की शरण ग्रहण करते हैं। अथवा जो हिंसादि पापाचरण तथा दम्भादि विकारों के कारण निर्विचार हो कार्य करते हैं। जो लोग अपने को गीताभक्त कहते हुए अहिंसादि दैवी संपत्ति से समलंकृत दिगम्बर श्रमणों अथवा अन्य शान्ति के उपासकों पर तामसी भावों से प्रेरित हो अपने में आसुरी वृत्ति को स्थान देते हैं, उनको क्या गति होगी, यह उपरोक्त कथन से स्पष्ट हो जाता है ? सात्विक शिक्षा के प्रचार से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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