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________________ आमुख 99 कि “भिक्षोर्धर्मः शमोऽहिंसा (साधु का धर्म शान्ति तथा अहिंसा है।) ' इस श्रेष्ठ अहिंसा धर्म की चर्चा करना सरल है, उस पर निर्दोष रूप से आचरण करना महान् आत्माओं का काम है । इस अहिंसा की साधना के लिए दिगम्बर वृत्ति तथा निःसङ्ग अवस्था आवश्यक है। जैसे सरोवर में एक छोटा-सा पाषाण खण्ड फेंकने पर लहरें उठती हैं, इसी प्रकार बाह्य कामिनी, कंचनादि का जरा भी सम्बन्ध मन को वीतरागता से गिराकर रागी, द्वेषी, मोही आदि विकार भाव सम्पन्न कराता है । इन्द्रियों के कारण हो जीव का मन चंचल होता है। गीता में कहा है ( ६०, अध्याय २) - " इन्द्रियाणि प्रमाथी हरंति प्रसभं मनः (इन्द्रियाँ प्रमथन स्वभाव वाली है, वे बलपूर्वक मन को अपनी ओर खींचती हैं।) " बाह्य पदार्थो का आश्रय पाकर आसक्ति उत्पनन्न होती है, उससे कामना जागतो है, इसके निमित्त से क्रोध पैदा होता है। क्रोध से अविवेक, उससे स्मृति का नाश होता है, इसके द्वारा बुद्धि-विवेक का नाश होता है, इससे यह श्रेयोमार्ग से गिर जाता है (गीता, श्लोक ६१, ६२, अध्याय २ ) - ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते । सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोभिजायते ॥ क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृति विभ्रमः । १ स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात् प्रणश्यति ॥ वास्तविक आनन्द की उपलब्धि जड़ पदार्थों में नहीं है। सच्चा सुख सदाचारो आत्मा को उपलब्ध होता है। दैवी सम्पत्ति के द्वारा मोक्ष प्राप्त होता है, 'दैवी संपद्विमोक्षाय' (५, १६) । जैन शास्त्रों में उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य तथा ब्रह्मचर्य ये दस धर्म कहे गए हैं। ' दिगम्बर जैन साधु में ये दस गुण पाये जाते हैं। इन्हीं गुणों का उल्लेख दैवी सम्पत्ति के रूप में गीता में पाया जाता है। वास्तव ये गुण ही नर को नारायण रुपता प्रदान करते हैं । पहिले पावन प्र - प्रवृत्ति के पथ में संलग्न मानव आत्मोत्कर्ष करता चला आया है, आज का भ्रान्त व्यक्ति जड़ तत्व के उद्धार में दीवाना बन अपने दिव्य वैभव को भूला हुआ है। प्रत्येक सत्पुरुष का ध्यान गीता के इन पद्यों पर जाना चाहिए (अध्याय ६, श्लोक १, २, ३) - अभयं सत्व - संशुद्धिर्ज्ञान - योग - व्यवस्थिति: । दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ॥ अहिंसा - सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम् । दयाभूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं हीरचापलम् || १. उत्तमक्षमा मार्दवार्जव - सत्य - शौच- संयम - तपस्त्यागाकिंचन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः ॥ Jain Education International त्रेपन - तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ६, सूत्र ६. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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