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________________ बावन चारित्र चक्रवर्ती केन्द्रों में नहीं है, आत्मा को महान् बनाने में व्यक्ति तथा राष्ट्र का हित है। पश्चिम के एक विद्वान ने यह अभिप्राय व्यक्त किया है कि शासन के नागरिकों के घरों के छतों को ऊँचा करने में राष्ट्र की उतनी सेवा तुम नहीं कर सकते, जितनी कि उनको आत्मा को विशाल बनाकर कर सकते हो। भौतिक विकास द्वारा प्राप्त सुख कृत्रिम है तथा अल्पकाल तक टिकता है। सारा जगत् अज्ञानवश उस सुख में ही मस्त हो रहा है। पूज्यपाद स्वामी ने लिखा है - वपुः गृहं धनं दाराः पुत्र मित्राणि शत्रवः। .. सर्वथान्यस्वभावानि मूढ़ः स्वानि प्रपद्यते॥ अर्थ : शरीर, घर, धन, स्त्री, मित्र, शत्रु ये सब जीव से भिन्न स्वभावयुक्त हैं, किन्तु अज्ञानी जीव इन सब को अपना मानता है। जिसने वास्तविक तत्वज्ञान को प्राप्त कर लिया है, वह विवेकी व्यक्ति भोग तथा मोह के मार्ग से विमुख होकर श्रेष्ठ त्याग को अङ्गीकार करता है। एक सत्पुरूष कहते हैंChastise your passions so that they may not Chastise you. (तुम्हें अपनी वासनाओं पर नियंत्रण रखना चाहिए, ताकि वे तुम्हें दण्डित न करें।) इस युग में आत्मविद्यारूप श्रेयोमार्ग का प्रदर्शन प्रथम जैन तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव ने किया था। उन्होंने प्रजापति के रूप में लोगों को लौकिक सुख और शांति के मार्ग पर लगाया था। जब उनकी दृष्टि मोह के अन्धकार की न्यूनता होने पर विशेष विशुद्ध बनी तब उन्होंने महान् राज्य का परित्याग कर दिगम्बर मुद्रा धारण की थी। उनका श्रेष्ठ व्यक्तित्व वैदिक साहित्य में भी निरूपित किया गया है। भागवत में भगवान् ऋषभदेव को वासुदेव का अंश कहते हुए उन्हें आत्मविद्या का पारगामी बताया है। भागवत में उनके लिए 'वासुदेवांशम्'शब्द आया है। उनके नौ पुत्र आत्मविद्या में निपुण दिगम्बर श्रमण हो गये थे। भागवत के ये शब्द ध्यान देने योग्य हैं (२०, अ. २, स्क. ११॥) नवाभवन्महाभागाः मुनयो ह्यर्थशंसिनः । श्रमणा वातरशना आत्मविद्या-विशा दा॥ वे दिगम्बर साधु सर्वत्र अव्याहतगति से विचरण करते थे (२३)अव्याहतेष्टगतयः सुरसिध्यसाध्यगन्धर्व यक्ष नर-किन्नर-नाग-लोकान्। मुक्ताश्चरन्ति मुनि-चारण-भूतनाथविद्याधर-द्विजगवाँ भुवनानि कामम्॥ एक समय महाराज निमि ने बड़े-बड़े ऋषियों के द्वारा एक महान् यज्ञ कराया था, तब यहाँ नव दिगम्बर श्रमण पहुँचे थे। उन्हें देखकर राजा निमि तथा अन्य महान् विप्र लोग खड़े हो गए थे, उन दिगम्बर साधुओं का महान् सन्मान किया था तथा उनकी पूजा की थी (श्लोक २४, २५, २६, अ. २)। भागवत(४२, अध्याय १८, स्कन्ध ११) में लिखा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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