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________________ ४४६ चारित्र चक्रवर्ती देते हुए कहा, "तू छह माह के भीतर ठीक हो जायगा । " महाराज की वाणी के अनुसार वह स्वस्थ हो गया। मृगी रोगी एक व्यक्ति मृगी रोग के कारण अपार व्यथा पा रहा था। सभी लोगों को ऐसा लगता था कि यह व्यक्ति न जाने कहाँ गिरकर मृगी के कारण मर जायगा । उसने महाराज की सेवा में रहकर बहुत दिन गुरुदेव के प्रसादार्थ प्रार्थना की। एक समय महाराज बाहर जा रहे थे। वह उनके पीछे लग गया और अपनी विनय स्वामी की सेवा में सुनाई । आचार्य ने कहा, " तू पूजन किया कर। थोड़े समय में ठीक हो जायगा । बहुत थोड़े समय में ही वह व्याधि के कुचक्र से बच गया। महाराज के हृदय से निकली हुई वाणी का अद्भुत प्रभाव देखा गया है। वानर वृन्द पर प्रभाव शिखरजी की तीर्थवंदना से लौटते हुए महाराज का संघ सन् १६२८ में विंध्यप्रदेश में आया । विध्याटवी का भीषण वन चारों ओर था। एक ऐसी जगह पर संघ पहुँचा, जहाँ आहार बनाने का समय हो गया था । श्रावक लोग चिंता में थे कि इस जगह वानरों की सेना का स्वच्छन्द शासन तथा संचार है, ऐसी जगह किस प्रकार भोजन तैयार होगा और किस प्रकार इन साधुराज की शास्त्रानुसार आहार की विधि संपन्न होगी ? उस स्थान से आगे चौदह मील तक ठहरने योग्य जगह नहीं थी । संघपति सेठ गेंदनमलजी जबेरी आचार्यश्री के समीप पहुँचे और कहा, "महाराज ! यहाँ तो बंदरों का बड़ा कष्ट है। हम लोग किस प्रकार आहारादि की व्यवस्था करें। " महाराज मुस्कराते हुए बोले, "तुम लोग शीरा, पूड़ी उड़ाते हो। बंदरों को भी शीरापूड़ी खिलाओं ।" इसके बाद वे चुप हो गए। उनके मुखमंडल पर स्मित की आभा थी । वहाँ संघ के श्रावकों ने कठिनता से रसोई तैयार की, किन्तु डर था कि महाराज के हाथ से ही बंदर ग्रास लेकर न भागें, तब तो अंतराय आ जायगा । इस स्थिति में क्या किया जाय ? लोग चिंतित थे । अस्तु, चर्या का समय आया । शुद्धि के पश्चात् आचार्य महाराज जैसे ही चर्या के लिए निकले कि सैकड़ों बन्दर स्वयमेव अत्यन्त शान्त हो गए और चुप होकर महाराज की चर्या की सारी विधि देखते रहे । बिना विघ्न के महाराज का आहार हो गया। इसके क्षण भर पश्चात् ही बन्दरों का उपद्रव पूर्वव्रत प्रारंभ हो गया। गृहस्थ बन्दरों को रोटी खाने को देते जाते थे और स्वयं भी भोजन करते जाते थे। ऐसी अपूर्व दशा महाराज के आत्मविकास तथा आध्यात्मिक प्रभाव को स्पष्ट करती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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