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________________ पावन समृति ४४४ भी कीमत नहीं करता। लोग संयम का मूल्य समझते नहीं है। जो पेट के लिए भी दीक्षा लेते हैं, वे तप के प्रभाव से स्वर्ग जाते हैं, तूने तो कल्याणार्थ संयम धारण किया है। तु निश्चय से स्वर्ग जायगा, इसमें रत्ती भर शंका मत कर।" प्रिय शिष्य को हितोपदेश एक बार महारज अपने एक भक्त को समझा रहे थे-“तुम घर में रहते हुए भी एकान्त में रहा करो। जहाँ भीड़ हो, वहाँ नहीं रहना, ध्यान, स्वाध्याय करना। दीक्षा लेना। घर में नहीं मरना। मनुष्य भव बार-बार नहीं मिलता है। मोह ने जीव को पछाड़ दिया है। अब उस मोह को पछाड़ना चाहिए। अतः सल्लेखना लेकर ही मरण करना।" मोह मल्ल को पछाड़ने की कला के ज्ञाता __ आचार्य महाराज के भक्त ब्रह्मचारी जिनदास भरडी (बेलगाँव) वाले वहाँ कुन्थलगिरि में भी आये थे। वे ब्रह्मचारीजी नामांकित पहलवान रहे हैं। राज दरबारों के समक्ष भी कुश्ती में वे यशस्वी हुए हैं। मैंने पूछा-“ब्र. जी! अब कुश्ती नहीं करते ।"वे बोले"अब हमने मेहनत करना बंद कर दिया है। अब हमारे गुरु शांतिसागर महाराज हैं। हम उनके पास कुन्थलगिरि आए हैं। वे हमें कर्मो से कुश्ती लड़ने का दाँव-पेंच सिखावेंगे। कारण, आचार्य महाराज मोहमल्ल को पछाड़ने की कला में अत्यन्त दक्ष हैं। वे ब्र. जी अब क्षुल्लक बन गए हैं। रत्नाकार आदि कन्नड़ कवियों के सुन्दर गीत उन्हें स्मरण है। आध्यात्मिक उद्योगपति आचार्य महाराज आध्यात्मिक उद्योगपति थे। आज का उद्योगपति वह होता है, जिसके तत्वावधान में बड़े-बड़े कारखाने चलते हैं। महाराज का उद्योग पुद्गल के बंधन काटने का था। वे मोहारि-विजय के उद्योग में निरन्तर उद्यत रहते थे। अष्टादश कोटि जाप उनके जीवन में विविधता थी। वे महान् आत्मचिन्तक थे, किन्तु जिनेन्द्र के पुण्य नामास्मरण करने में भी वे असाधारण भक्तराज थे। सल्लेखना लेने के पूर्व वे अपने पंच परमेष्ठीवाचक विशिष्ट मंत्रों की १८ कोटि जाप पूर्ण कर चुके थे। भयंकर ज्वर में भी जाप उनका जाप का कार्यक्रम निराबाध गति से चला करता था। भयंकर ज्वर चढ़ा है। थर्मामीटर के हिसाब से ज्वर १०४ या १०५ डिग्री को पहुंच चुका है, किन्तु ये मनोबली मुनिराज अपने जाप के काम में निमग्न रहते थे। एक बार महाराज फलटण से लोणंद गए थे, कारण, फलटण के हीरक जयंती के समय से महाराज को ज्वर आने लगा था। उस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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