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________________ ४४५ चारित्र चक्रवर्ती समय की स्थिति का ज्ञान होने से मैंने पूज्यश्री से पूछा था - " महाराज ऐसी ज्वर की भीषण स्थिति में तो आपको जप कार्य स्थगित होता होगा ?" महाराज - " उस समय भी हम बराबर जाप करते थे। उस समय भी जाप में बाधा नहीं पड़ती थी ।” उनमें आत्मबल महान् था। उससे ही उनमें सत्प्रवृत्तियों का महान् विकास हुआ था। शरीर के श्रान्त होते हुए भी उनका मन धार्मिक प्रवृत्तियों के विषय में सदा नवस्फूर्तिपूर्ण रहता था। आदत मनुष्य के दूसरे स्वभाव (Second Nature) सदृश मानी जाती है। जिनेन्द्र भगवान् को हृदय में विराजमान कर उसकी जन्मजन्मांतर से की गई आराधना का ही यह सुफल रहा है कि वे आत्मकल्याणकारी कार्यो में सदा सफल रहे। इस धर्म वृक्ष के शरण को ग्रहण करने वालों को सदा कल्पनातीत सुफल मिले हैं तथा आगे मिलते रहेंगे। उपवासों की सम्पत्ति उनके द्वारा जीवन में किए गए उपवासों की गणना करना कठिन है। कोई न कोई व्रत चलता ही जाता था। एक उपवास, एक भोजन तो उनके लिए बहुत ही सामान्य बात थी । वह क्रम प्रायः चलता था । महाराज एक दिन कहते थे- “उपवास से शरीर में प्रमाद नहीं रहता । और समय यदि हम दस मील चलते, तो उपवास के दिन शरीर हल्का रहने के कारण सहज ही पंद्रह मील चले जाते थे ।" उनको हमने कभी भी प्रमादपूर्ण अवस्था में नहीं देखा । यथार्थ में प्रमत्तगुणस्थानवर्ती होते हुए भी उनकी चेष्टायें सदा अप्रमत्त सदृश थीं। उनकी एक पुस्तक से ज्ञात हुआ कि उन्होंने तीस-चौबीस भगवान् के ७२० उपवास किये थे । पाँच भरत तथा पाँच ऐरावत रूप दश क्षेत्रों की त्रिकालवर्ती चौबीसी को तीस चौबीसी कहते हैं । ३०X२४ = ७२० उपवास तीस चौबीसी व्रत में होते हैं चारित्र शुद्धि व्रत के १२३४ उपवास हुए थे। सोलहकारण व्रत को १६ वर्ष किया। उसमें उनका एक उपवास, एक आहार का क्रम चलता रहता था। सिंह विक्रीड़ित सदृश कठोर तप उन्होंने किया था । आष्टाह्निक व्रत, दशलक्षण व्रत, कवलचांद्रायण व्रत, कर्मदहन व्रत, श्रुतपंचमी व्रत आदि उन्होंने किये थे । गणधरों के चौदहसौ बावन उपवास करने का क्रम चल रहा था, उसमें दो सौ उपवास हो पाये थे । तपस्या के द्वारा मन की मलिनता दूर होती है। आत्मा विशुद्धता प्राप्त करती है। महान तपस्या के अभ्यास के कारण विपत्ति की स्थिति में उनका मन उनके आधीन रहता था । सच्चा साधुत्व तो तभी है, जब विपत्ति के समय वह अपनी प्रतिज्ञा से न डिगे। संकट के समय भी महाराज में अद्भुत स्थिरता, आत्मविश्वास तथा दृढ़ता का दर्शन होता था । कवि का यह कथन सत्य है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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