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________________ ४४३ चारित्र चक्रवता विविध मनो-विकल्प कुंथलगिरि में भारत के कोने-कोने से पन्द्रह-बीस हजार तक लोगों का समुदाय जिन साधुराज के पावन दर्शन को दौड़-दौड़ कर इस जंगल की पहाड़ी पर आता-जाता था। सब आकुलित थे कि अब इस अपूर्व सूर्य का दर्शन आगे न होमा। भौतिक सूर्य जाने के बाद पुनः दर्शन देता है, किन्तु यह धर्मसूर्य पुनः यहाँ दर्शन नहीं देगा। सल्लेखना की वेला में उन साधुराज की चर्चा स्वर्गलोक में अवश्य हो रही होगी। सौधर्मेन्द्र अपनी सुधर्मा सभा में बैठकर चर्चा कर रहे होंगे कि इस काल में उत्कृष्ट तप और इंद्रिय विजय करने वाला महासाधु शांतिसागर के रूप में भरतखंड में जिनधर्म की प्रभावना करता रहा है। अब हमारे स्वर्गलोक की वह शीघ्र ही श्रीवृद्धि करेगा। वह सुर समाज बड़े सज-धज के इन अप्रतिम साधुराज के स्वागत के लिए हृदय से तैयारी कर रहा होगा। सचमुच में संसार की दशा निराली है। पूर्णिमा की रात्रि को चन्द्रमा अपनी शुभ्र ज्योत्स्ना से विश्व को धवलित करता है। प्रभात होते ही वह अस्तंगत होता है और प्रताप-पुंज प्रभारक उदित होता है। विश्व में भाग्यचक्र इस प्रकार बदलता रहता है। अब १८ सितम्बर १९५५ के प्रभात से सुर समाज का भाग्य जागा कि मध्यलोक की विभूति स्वर्गलोक में पहुंच गई। दिव्य जगत् में साथी स्वर्ग में वे अनेक महापुरुषों के साथी हो गए, जिन्होंने पूर्व में उनकी ही तरह जिन दीक्षा लेकर जिनधर्म की उज्ज्वल आराधना की थी। महर्षि कुन्दकुन्द, समंतभद्र, अकलंक, जिनसेन, गुणभद्र आदि महापुरुषों ने रत्नत्रय की समाराधना द्वारा देव पदवी प्राप्त की होगी, इसमें संदेह की क्या बात है। आगमोक्त कथन पर सम्यक्त्वी की श्रद्धा रहती है। कहा है-'आगम तीजा नयन बताया-आगम तीसरा नेत्र है। संयम और समाधि के प्रसाद से आचार्य शांतिसागर महाराज भी उन श्रेष्ठ आत्माओं की मधुर मैत्री का रसास्वाद करते होंगे। उन्होंने तो सीमंधर स्वामी आदि विद्यमान बीस तीर्थंकरों के साक्षात् दर्शन का सौभाग्य प्राप्त किया होगा। वहाँ से चल कर वास्तव में वे धर्म तीर्थ के प्रवर्तक होंगे। इस सम्बन्ध में दृढ़तापूर्वक कथन तो प्रत्यक्षवेदी मुनियों का ही हो सकता है। हम लोग तो अनुमान प्रमाण के आधार से ही प्रमाणिक निर्णय पर पहुँच सकते है। संयमी का महत्व आचार्य महाराज की दृष्टि में संयम तथा संयमी का बड़ा मूल्य रहा है। एक दिन वे अपने क्षुल्लक शिष्य सिद्धसागर (भरमप्पा) से कह रहे थे-"तेरे सामने में चक्रवर्ती की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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