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________________ ४४२ पावन समृति तो वह ॐ सिद्धाय नमः ही था। सिद्ध बनने के सत्संकल्प वाले सत्पुरुष के मुख से सिद्धों को प्रणामांजलि अर्पित करने वाली वाणी ही पूर्णतया उपयुक्त थी। जब महाराज ने सर्वप्रकार का आहार छोड़ दिया, तब उनकी दृष्टि ज्ञानसुधारसपान करने वाले अशरीरी सिद्धों की ओर रहना स्वाभाविक थी। वे साधुराज एक बार कहते थे, हम तो अनंत सिद्धों के साथ बैठकर सिद्धलोक में अपनी आत्मा का ध्यान करते हैं। उनकी दृष्टि में सिद्ध भगवान् ही तो सर्वत्र दिखेंगे। बाह्यदृष्टि से उन्होंने सिद्धक्षेत्र कुंथलगिरि को समाधि का आश्रम बनाया था। मैंने एक दिन पूज्य गुरुदेव से कहा था-"महाराज! आपने कुन्थलगिरि को अपनी अमर सल्लेखना का स्थान चुना, इसका कारण मुझे यह लगता है कि देशभूषण, कुलभूषण भगवान् बालब्रह्मचारी थे। आप भी उनके समान रहे हैं। आपके जीवन में तो हमें दोनों प्रभुओं का समन्वय प्रतीत होता है। आप देश के भूषण हैं। और सम्यक्त्वी जीवों के कुल के भूषण हैं। आपकी समाधि के कारण इस क्षेत्र को नवीन प्राण प्राप्त हो गया। आपके चरणों का सान्निध्य पाकर हमारा जीवन धन्य है।" मैंने यह भी कहा था-"महाराज ! जिनेन्द्र भगवान् से हमारी प्रार्थना है कि आप सदृश सद्गुरू के चरणों का शरण भव-भव में प्राप्त हो।" महाराज ने कहा था-"तुम्हारे मन में भक्ति है। इससे तुम ऐसा बोलते हो।" अप्रतिम साधुराज वास्तव में विचार किया जाय तो यह बात प्रत्येक विचारक सोचेगा कि इस काल में ऐसे सद्गुरू का अब दर्शन सचमुच में दुर्लभ है। पंचमकाल के कलुषित वातावरण में प्राचीन साधुओं की तपस्या तथा पवित्रता को अपनी जीवनी द्वारा बताने वाले महाराज शांतिसागरजी के समकक्ष होने की सामर्थ्य किसमें हो सकती है ? सचमुच में अलंकारशास्त्र की भाषा में शांतिसागर महाराज शांतिसागर महाराज सदृश थे' - ऐसा कहना ही पूर्ण सत्य होगा, जिस प्रकार पूज्यपाद स्वामी कहते हैं : ___ "स्वर्ग में देवताओं का सुख, स्वर्ग में देवताओं के समान है - नाके नाकोकसां सौख्यं, नाके नाकौकसामिव।"- इष्टोपदेश (५) युग के श्रेष्ठ मानव इस युग ने राजनैतिक क्षेत्र में जगत् को प्रभावित करने वाला गांधी सदृश तेजस्वी पुरुष दिया, काव्य व साहित्य के क्षेत्र में रवीन्द्रनाथ समान विश्वकवि दिया, आईस्टिन सा महान वैज्ञानिक दिया, तो अध्यात्म के क्षेत्र में साधु-समाज के शिरोमणि महाराज को दिया, जिनकी पुण्यकथा विश्वविदित है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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