SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 558
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४१ चारित्र चक्रवर्ती अशक्त हो गए हैं कि उनकी वाणी का रेकार्ड तैयार करना असंभव हैं। मैंने कहा- “सचमुच में उपदेश नहीं मिलेगा, ऐसा ६६ प्रतिशत समझकर भी यंत्र को लाना चाहिए। शायद एक प्रतिशत की संभावना सत्य हो जाय।" कुछ भाइयों के प्रयत्न से रिकार्ड की मशीन लेकर इंजीनियर आ गया। उस समय महाराज के पास पं. मक्खनलालजी, मुरैना और मैं पहुँचे। उनसे कुछ थोड़े-से शब्दों से सारपूर्ण बात कहने की प्रार्थना की। उस समय महाराज के थके शरीर से ये शब्द निकले-“अरे ! पहले लाए होते, तो दसों उपदेश दे देते।" इन शब्दों का क्या उत्तर था ? मस्तक लज्जा से नत था। सचमुच में ऐसी भूल का क्या इलाज हो सकता है। धर्मप्रभावना के महत्वपूर्ण कार्यो में ऐसी अज्ञतापूर्ण चेष्टाएं हुआ करती हैं। मन में आया-'देखो ! पूज्यश्री की जयंती मनाने में, उनके लिए गजट का विशेषांक निकालने में धार्मिक संस्था जैन महासभा ने पैसे को पानी मानकर खर्च किया, किन्तु इस दिशा में जगाए जाने पर भी समर्थ भक्तों के नेत्र न खुले। यथार्थ में देखा जाय तो इसमें दोष किसी का नहीं है। जब दुर्भाग्य का उदय आता है, तब हितकारी और आवश्यक बातों की तरफ ध्यान नहीं जाता है।' अमर संदेश मैंने महाराज से कहा था-"महाराज! दो-चार मिनिट ऐसा उपदेश रिकार्ड हो जाय, जिसमें लोगों के मन में धार्मिक भावना जगे।" महाराज ने कहा, “यन्त्र लाओ।" यन्त्र लाया गया। महाराज ने नेत्रों को बन्द दिया। आँख को बंद किए हुए वे महापुरूष २२ मिनट पर्यन्त ऐसा उपदेश दे गए कि यदि यह कहा जाये कि उसमें जिनागम का सार आ गया और अनुभव के स्तर पर कल्याण की सब बातें आ गई, तो पूर्णतया सत्य होगा। उस महत्व की बेला में महाराज की कुटी में उनके सामने की तरफ बैठने का मुझे सुयोग मिल गया था। उस समय महाराज की वीतरागता उस वाणी द्वारा बाहार आ रही थीं ऐसा लगता था, मानो हम किन्हीं ऋद्धिधारी महर्षि के मुख से उद्गत अमृत वाणी का रसपान ही कर रहे हों। बोलते-बोलते महाराज कुछ क्षण रुक जाते थे। __ आज के युग के वक्ता भाषण देते-देते पानी पिया करते हैं। महाराज का यमसल्लेखना व्रत के उपवास का छब्बीसवाँ दिन था। वे अपने क्षीण तथा शुष्क कण्ठ में बल लाने को"ॐ सिद्धाय नमः" रूप जिनवाणी का अमृत पान कर लेते थे और अपना विवेचन जारी रखते थे। सिद्धों की भक्ति महाराज की कुटी में बहुधा जब कभी महाराज के मुख से कोई शब्द सुनाई पड़ता था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy