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________________ ४३२ पावन समृति कि युद्ध की घोषणा सर्वप्रथम जर्मनी ने की है। __महाराज का शुद्ध मन बोल उठा-“इस युद्ध में जर्मनी निश्चय ही पराजित होगा।" कुछ काल बाद जर्मनी की विजय अवश्यंभाविनी मानने वाले लोगों को भी यह दिखा कि आचार्यश्री का अतःकरण सत्य बात को पहले ही सूचित कर चुका था कि आक्रान्ता जर्मनी पराजित होगा। पुण्यवान जवाहर गांधीजी की प्रतिष्ठा देशभर में व्याप्त थी। एक समय महाराज बोले-“गांधीजी अच्छे आदमी हैं, उनसे अधिक पुण्यवान जवाहरलाल हैं। वह राजा बनने लायक हैं।" मैंने पूछा था, “महाराज राजनीति की बातों से तो आप दूर रहते हैं, फिर आपने जवाहरलालजी के बारे में उक्त बातें कैसे कही थीं।" ___ महाराज ने कहा-“हमारा हृदय जैसा बोलता है, वैसा हमने कह दिया। हम न गांधी को जानते, न जवाहर को पहचानते।" पुण्यात्मा साधुराज आचार्य महाराज सचमुच में श्रेष्ठ तपस्वी होने के साथ ही साथ अपूर्व पुण्यात्मा भी थे। उनके पुण्य चरणों को सभी सम्प्रदाय वाले प्रणाम करते थे। बड़े-बड़े राजा-महाराजा, करोड़पति, सेठ-साहूकार, सैनिक सभी वर्ग के लोग उनके प्रति पूज्यभाव रखते थे। संघपति का महत्व अनुभव संघपति सेठ गेंदनमलजी तथा उनके परिवार काआचार्यश्री के साथ महत्वपूर्ण सम्बन्ध रहा है। गुरूचरणों की सेवा का चामत्कारिक प्रभाव, अभ्युदय तथा समृद्धि के रूप में उस परिवार ने अनुभव भी किया है। सेठ गेंदनमलजी ने कहा था-“महाराज का पुण्य बहुत जोरदार रहा है। हम महाराज के साथ हजारों मील फिरे है, कभी भी उपद्रव नहीं हुआ है। हम बागड़ प्रान्त में रात भर गाड़ियों में चलते थे, फिर भी विपत्ति नहीं आई। बागड़ प्रान्त के ग्रामीण ऐसे भयंकर रहते है कि दस रूपये के लिए भी प्राण लेने में उनको जरा भी हिचकिचाहट या संकोच नहीं होता था। ऐसे अनेक भीषण स्थानों पर हम गए है कि जहाँ से सुख-शांतिपूर्वक जाना असम्भव था, किन्तु आचार्य महाराज के पुण्य-प्रताप से कभी भी कष्ट नहीं देखशा। वर्षा का भी अद्भुत तमाशा बहुत बार देख। हम लोग महाराज के साथ-साथ रहते थे। वर्षा आगे रहती थी, पीछे रहती थी, किन्तु महाराज के साथ पानी ने कभी कष्ट नहीं दिया। उनको हर प्रकार की पुण्याई के दर्शन किए थे।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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