________________
४३३
तपोमंदिर का कलश
की तपस्या के मन्दिर का कलश देखना और बाकी रहा था । वे कुंथलगिरि के पहाड़ पर बैठकर जो हजारों लोगों को दर्शन देते थे और सबको आशीर्वाद देते थे, वह तो उनके समवशरण सदृश लगता था । भाग्य से उनका यह प्रभाव भी अब समाधि काल में देखने का सौभाग्य मिल गया।
चारित्र चक्रवर्ती
महान् तपस्या द्वारा प्राप्त अपूर्व पुण्य
लोगों की आदत है कि जब कभी पुण्य की महिमा का दर्शन होता है, तो उनका मन उस प्रकार के पुण्य एवं वैभव के लिए लालायित हो जाया करता है। प्रभु से वे प्रार्थना कर बैठते हैं- भगवान् ! हमें भी ऐसा ही पुण्य प्राप्त हो। वे लोग अपने कर्मों को सुधारने का प्रयत्न नहीं करते हैं और इसके ही कारण उनकी कामना पूर्ण नहीं होती है । नीतिकार का कथन पूर्णसत्य है :
पुण्यस्य फलमिच्छंति पुण्यं नेच्छन्ति मानवाः । न पापफलमिच्छंति पापं कुर्वन्ति यत्नतः ॥
लोग पुण्य को नहीं चाहते हैं, उस पुण्य से उत्पन्न सुखरूप फल की इच्छा करते हैं। वे पापरूप फल को नहीं चाहते हैं, किन्तु पाप के संचय में प्रयत्नशील रहते हैं । आचार्यश्री की अपूर्व तपस्या ही उनके उच्च पुण्य तथा प्रभाव का कारण है। तृषा - परीषह जय
एक दिन की घटना है। ग्रीष्मकाल था । महाराज आहार को निकले। दातार ने भक्तिपूर्वक भोजन कराया, किन्तु वह जल देना भूल गया। दूसरे दिन गुरूदेव पूर्ववत् मौनपूर्वक आहार को निकले। उस दिन दातार ने महाराज को भोजन कराया, किन्तु अंतराय के विशेष उदयवश वह भी जल देने की आवश्यक बात को भूल गया। कुछ क्षण
की प्रतीक्षा के पश्चात् महाराज चुप बैठ गए। मुखशुद्धि मात्र की । जल नहीं पिया । खड़े होकर ही आहार -पान होता है ।
चुपचाप वापिस आकर वे सामायिक में निमग्न हो गये । पिपासा के कष्ट की क्या सीमा है ? क्षणभर देर से यदि प्यासे को पानी मिलता है, तो आत्मा व्याकुल हो जाती है, यहां तो दो दिन हो गए, किन्तु वे उस परीषह को समताभाव से सहन कर रहे थे। मालूम पड़ता है, वे नरकों के दुःखों का स्मरण कराकर अपने मन को समझाते होंगे, कि तूने जब पराधीन स्थिति मे सागरों पर्यन्त प्यास का कष्ट भोगा है, तो यहाँ अपने कर्मो की निर्जरा के हेतु क्यों नहीं इस प्यास की पीड़ा को शांत भाव से सहन करता है ? उनका मन, उनकी इन्द्रियां उनके अधीन थी हीं, अतः बहुत धीरता तथा गम्भीरतापूर्वक वे प्यास की बाधा
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International