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पावन समृति
भेदविज्ञान
"भेदविज्ञान बिना सम्यक्त्व नहीं होता है। आत्मा का अनुभव होने पर अन्तर्मुहूर्त में कोटिवर्ष पर्यन्त की गई तपस्या से अधिक निर्जरा करता है। आत्मा को कर्मो का निग्रह करना चाहिए ।"
सच्चा अध्यात्मवाद
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" गृहस्थ क्या करें ? प्रतिदिन आत्मा का चिन्तवन करो। कम से कम दो घड़ी मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदना से सावद्य दोष का परित्याग करो। इस शरीर में तिल में तैलवत् सर्वत्र आत्मा है। कोन-सा भाग खाली है ? राजपुत्र द्वारा विद्या प्राप्ती के लिए किए गए उद्योगसदृश पहले आत्मा का ध्यान करो। इसमें मुनि की मुद्रा अन्तिम वेष है। आरम्भ, मोह, कषाय के क्षयार्थ यह वेष आवश्यक है । जो इस मुद्रा को धारण नहीं कर सकते, वे गृहस्थ होते हुए आत्मा का ध्यान कर निर्जरा करते हैं। चौबीस घण्टे में कम से कम पन्द्रह मिनट पर्यन्त आत्मा का ध्यान करो। इससे असंख्यातगुणी निर्जरा होती हैं इस आत्मा का ध्यान न करने से तुम अनंत संसार में फिरते रहे। इसके सिवाय मोक्ष का दूसरा उपाय नहीं है, ऐसा भगवान् ने कहा है। इससे अविनाशी, सुखपूर्ण, मोक्ष की प्राप्ति के लिए आत्मा का ध्यान अवश्य करना चाहिए। "
मंत्रों का महत्व
प्रश्न- " ह्रां ह्रीं हुं हूं हैं हैं ह्रौं ह्र: ' शब्दों का क्या भाव है ?"
उत्तर- "ये ऋद्धिधारक मुनियों के वाचक शब्द हैं। "
महाराज ने कहा- “यह उपयोगी मंत्र है, ॐ अरहंत - सिद्ध-साधुभ्यो नमः'३५ अक्षर के मंत्र के जपने से महान् फल होता है। उतना फल छोटे मंत्र के अधिक जाप द्वारा सम्पन्न होगा । "
महाराज ने कहा था - "हमने धर्मसंकट आने पर ही उस लक्ष्य से सवा लाख जाप किया था, अपने स्वास्थ्य लाभार्थ हमने कभी भी जाप नहीं किया।"
१९५३ में हमने महाराज में विशेषता देखी। उनकी दृष्टि में अपूर्व परिवर्तन था । महाराज का हृदय वैराग्य और स्वोन्मुखता से अधिक ओतप्रोत हो रहा था । महाराज के जाप का मंत्र
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मन्त्र - (१) ॐ ह्रां ह्रीं हुं हूं हैं हैं ह्रौं ह्रः असि आ उ सा महावीर स्वामी धर्मसंकटनिवारणाय सिद्धाधिपतये स्वाहा ।
(२) ॐ अरहंत - सिद्ध-साधुभ्यो नमः ।
प्रश्न- "महाराज, इस महान् तपस्या से शरीर को कष्ट होता है या नहीं ?"
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