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________________ ४२१ चारित्र चक्रवर्ती उत्तर- (उस समय महाराज का मौन था- पाँच दिन का उपवास भी था, इसलिए उन्होंने संकेत द्वारा अपने हृदय की ओर हाथ दिखाते हुए यह सूचित किया-“आत्मा की शक्ति पर भरोसा है।") मैंने यही शब्द कहे, तो महाराज ने सिर हिला कर इसका समर्थन किया। लोगों के बहुत पत्र आते थे। सब उन्हें नमोस्तु लिखते थे। एक दिन उन्होंने समुदाय रूप यह आदेश हमें दे दिया-"जो हमें नमस्कार लिखे, उसे हमारा आशीर्वाद लिख दो।" पाँच उपवास के समय मौन की स्थिति में महाराज को मास्टर गो. वा. वीड़कर मधुर स्वर में आध्यात्मिक पद सुना रहे थे। हमने समन्तभद्राचार्य का ‘सुश्रद्धाममते मत' वाला श्लोक सार्थ सुनाया। उस समय उनके मुखमंडल पर आनन्द की ज्योति जग गई। जिनेन्द्र भक्ति की पीयूषवर्षिणी धारा से समन्तभद्र स्वामी का हृदय कितना विशुद्ध था, यह उनके मन में अंकित हो गया था। हम पर परम कृपा एक दिन महाराज ने कहा था-"पहले सोचा था तुम यहाँ व्रतों में आवोगे, इससे मौन नहीं लेना चाहिए, पश्चात् आत्मा की प्रवृत्ति उस ओर हो गई, इससे मौन ले लिया था।" फिर कहने लगे-“लोगों के साथ वचनालाप करने में सार क्या है ? जिनके कान पर शब्द पड़ते हैं, उनके हृदय पर कुछ भी प्रभाव नहीं दिखता। हमारा विचार तो आगे भी ऐसा ही मौन धारण का होता है। ५ उपवास के बाद गुरुदेव ने पारणा करके आगे ५ उपवास की प्रतिज्ञा की। उस समय पूज्यश्री ने कहा-"हमने तुम्हारे कारण मौन का नियम नहीं लिया। हमने सोचा शास्त्री इतनी दूर से आया है। उसे दुःख होगा। अतः मौनरहित उपवास की प्रतिज्ञा ली है।" मुझे अपूर्व आनंद आया, कि इन लोकोत्तर महापुरुष की हम पर इतनी कृपा है। मौन का महत्व मौन द्वारा आत्मा की शक्तियों का अपव्यय रुक जाने से आत्मजागृति के योग्य विशेष परिस्थिति विवेकी साधक को प्राप्त होती है। तीर्थङ्कर दीक्षा के बाद मौनव्रती होकर महामौनी कहे जाते हैं। यदि मौन में महत्व न होता, तो चार ज्ञानधारी तीर्थंकर भगवान् उसका परिपालन नहीं करते। अंग्रेज पादरी कारलाइल कहता है 'Silence is the element in which great things fashion themselves'- ATA एक ऐसा तत्व है, जिसमें महान् कार्य संपन्न किए जाते हैं। ईर्यासमिति का भाव १६ सितम्बर, १९५३ भादों सुदी ८ की बात थी। नेमिसागरजी पहाड़ पर जा रहे थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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