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पावन समृति
४१८ प्रयोजन ? जहाँ इन्द्रिय है, वहाँ उसे तृप्त करने का दुःख होता है। एक इन्द्रिय को तृप्त करते ही दूसरी इन्द्रिय का दुःख उपस्थित होता है। सिद्धों में असली सुख होता है। वैसा सुख दूसरी जगह नहीं। वहाँ जन्म-मरण नहीं है। होटल में भोजन के पैसे लेने के बाद स्थान नहीं मिलता हैं, ऐसे ही देव पर्याय तक में आयु पूर्ण होने के अनन्तर जीव को क्षण भर भी स्थल नहीं मिलता।" ___ “मनुष्यों में भोजन, वस्त्र, मकान, धन आदि का दुःख रहता है। श्रीमंत को दसगुनी चिंता रहती है। उसके शत्रु भाई-बंधु तक बनते हैं। धन को संभालने का कम कष्ट नहीं होता। मोक्ष-प्राप्ति के अनंतर ही सच्चा सुख मिलता है। उस सुख के लिए क्या करना चाहिए ?"
"राजा मांडलिक नरेश, चक्रवर्ती को राज्य की मालकी का सुख है, किन्तु उनका शत्रु आयु कर्म है। इतना वैभव, नवनिधि, चौदह रत्न छोड़कर जाना पड़ता है, इससे महान् दुःख होता है।" __ “आयु पूर्ण होने पर एक मिनट भी रुकना असम्भव है।इस प्रकार विचारने पर नरक में दुःख, तिर्यच में दुःख, मनुष्य में दुःख, चारों गतियों में दुःख ही दुःख है। खरा सुख सिद्ध पर्याय में है।"
“मोक्ष का सुख कैसे मिलता है ? आचार्य कहते हैं-'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः।' पहले मार्ग का वर्णन करना चाहिए। सम्मेदशिखर जाने के लिए पहले उसके मार्ग का वर्णन करना चाहिए।"
सम्यक्त्व
“सम्यग्दर्शन क्या है ? मिथ्यात्व क्या है ? यह जानना चाहिए।" महाराज ने कहा-“कौन मिथ्यात्वी है ? हाथ उठाओं।" उन्होंने पुनः कहा-“सम्यक्त्वी कौन है - हाथ उठाओ।" इस पर सन्नाटा छा गया।
महाराज के मुखमंडल पर मधुर स्मित आ गया। वे बोले-“केवली भगवान्, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी जानते हैं कि कौन सम्यक्त्वी है।"
"कुंदकुंद स्वामी ने अत्यन्त सरल शब्दों द्वारा सम्यक्त्व को इन शब्दों में बताया है'अरहते सुहभत्ती सम्मत्त' (शील पाहुड ४०) - अरहंत में शुभ भक्ति सम्यक्त्व है। भक्ति का स्वरूप इस प्रकार कहा गया है :
मनसा कर्मणा वाचा जिननामाक्षरद्वयम् ।
सदैव स्मर्यते यत्र सार्हद्भक्तिः प्रकीर्तिता॥ अर्थ : जहाँ मन, वचन, काय द्वारा सदा जिन नाम के अक्षरद्वय का सदा स्मरण होता है, वहाँ अर्हद्भक्ति कही गई है।"
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