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________________ ४१७ चारित्र चक्रवर्ती हो गया। उस वृद्धा के उपवास के बारे में एक बात ज्ञातव्य है । उसने महाराज से १६ उपवास माँगे तब महाराज ने कहा- "बाई ! तुम्हारी वृद्धावस्था है। ये उपवास नहीं बनेंगे। उसने आग्रह किया और कहा, महाराज! मैं प्राण दे दूँगी, प्रतिज्ञा भंग नहीं करूँगी । महाराज ने उपवास दे दिये। उस वृद्धा ने प्राण त्याग दिए, किन्तु व्रत भंग नहीं किया। हम स्वयं वहाँ थे । अद्भुत शांति, निर्मलतापूर्वक उसका समाधिमरण हुआ था । " महाराज ने उसके शोकाकुल कुटुम्बियों से कहा था - "हम खातरी से ( निश्चय से ) कहते हैं, उस बाई ने देव पर्याय पाई। इतने उपवास से प्राप्त विशुद्धता और निर्वाणभूमि का योग सामान्य लाभ नहीं है। इसके विषय में तुम लोगों के शोक करने का क्या मतलब ?" महाराज के थोड़े-से प्रबोधपूर्ण शब्दों ने कुटुम्बियों का सारा दुःख धो दिया था । सागर महाराज का केशलोंच व्रतों के बाद कुँवार वदी दशमी, शनिवार, १७ अक्टूबर, १९५३ को मुनि नेमिसागरजी का केशलोंच हुआ । नेमिसागरजी का केशलोंच बहुत जल्दी हो गया। उस समय मैंने पूछा - "महाराज, आपको केशों को उखाड़ते देखकर लोगों की आँखों में पानी आ जाता है, किन्तु आपके मुख में तनिक भी विकृति नहीं आती, इसका क्या कारण है ? क्या कष्ट नहीं होता ?" उत्तर में उन्होंने कहा- “हमें कोई कष्ट नहीं होता । केशलोंच करते बहुत दिन बीत गए। इससे अभ्यास भी हो चुका है। " उस समय आचार्य महाराज का मार्मिक भाषण हुआ। आचार्य महाराज का उपदेश अपने उपदेश में आचार्य मह 1 ने कहा था- " भव्यों ! यह जीव चतुर्गति संसार में परिभ्रमण करता चला आ रहा है। देवगति में कल्पवृक्षों द्वारा मनोवांछित पदार्थ मिलते हैं । उपपाद शय्या में सुखपूर्वक जन्म होता है। परिपूर्ण आयु रहती है। बुढ़ापा नहीं होता, किन्तु उसमें बड़ा दोष यह है कि वह सुख अविनाशी नहीं है। नरक में जीव मारा-मारी और बैर भाव आदि के कारण दुःख पाता है। उसका वर्णन कौन कर सकता है ? तिर्यंच पर्याय में बैल, हाथी, भैंसा आदि प्राणी पराधीनतावश पीड़ा पाते हैं। बहुत-से जीव भूख जाते हैं। उनसे शक्ति से अधिक काम लिया जाता है, इससे उन्हें अपार वेदना होती है। उन जीवों में भय की मात्रा भी बहुत होती है। हरिण को व्याघ्र का भय रहता है। मेढ़क को सर्प मारता है। मछली को मछली मार कर खा जाती है। मनुष्य गति में भी स्थायी आनंद नहीं मिलता। स्थिर सुख तो पाँचवी गति मोक्ष में है । वहाँ पंच इन्द्रिय बिना सुख कैसे ? भूखे को अन्न देते हैं, किन्तु क्षुधा की वेदना नहीं है, तो पकवान से क्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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