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________________ ४०१ चारित्र चक्रवर्ती जीवन ही हमारे लिए, आपके लिए, विश्व के लिए संदेश पूर्ण है। आगमका प्रकाश आचार्यश्री की आत्मा का क्या हुआ ? यह बात भौतिक नेत्रों से अगोचर होते हुई भी, आगम-चक्षु के द्वारा देखी जा सकती है। जिनवाणी का कथन है कि इस शरीर को छोड़कर जीवन तीन समय के भीतर दूसरे स्थान में पहुँचकर नवीन-शरीर निर्माण के योग्य सामग्री को ग्रहण करने लगता है। गोम्मटसार में लिखा है-“जिसने देवायु का बंध किया है, वही जीव अणुव्रत तथा महाव्रत को धारण करता है।" अत: महाव्रती आचार्य महाराज का स्वर्ग में पहुँचना सुसंगत बात है। तिलोयपण्णत्ति के निम्नलिखित कथन को ध्यान पूर्वक पढ़ने से यह विचार चित्त में उत्पन्न होता है कि सम्भवत: आचार्य महाराज देवताओं के ऋषि लोकांतिक हुए होंगे। उन्होंने निर्दोष रीति से जीवन भर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया था। उनका सम्पूर्ण जीवनवैराग्य रस से भरा हुआ था। लौकान्तिक कौन होता है ? तिलोयपण्णत्ति का कथन इस प्रकार है- “जो सम्यग्दृष्टि श्रमण, स्तुति और निंदा में, सुख और दुःख में, बंधु और रिपु में समान है, वह लौकान्तिक होता है। जो देह के विषय में निरपेक्ष, निर्द्वन्द्व, निर्मम, निरारंभ और निर्दोष हैं, वे ही श्रेष्ठ श्रमण लौकान्तिक होते हैं। जो श्रमण संयोग और वियोग में, लाभ और अलाभ में, तथा जीवित और मरण में समदृष्टि होते हैं, वे ही लौकान्तिक होते है। संयम, समिति, ध्यान एवं समाधि के विषय में जो निरन्तर उद्यत रहते हैं, तथा तीव्र तपश्चरण धारण करते हैं, वे श्रमण लौकान्तिक होते हैं। पंच महाव्रत सहित पंच समितियों का चिरकाल तक आचरण करने वाले को पाँचों इन्द्रिय विषयों से विरक्त ऋषि लौकान्तिक होते हैं।" (८ वा अधिकार, गाथा ६४७ से ६५१) अनुमान आचार्यश्री के चरणों में बहुत समय व्यतीत करने के कारण तथा उनकी सर्वप्रकार की चेष्टाओं का सूक्ष्म रीति से निरीक्षण करने के फलस्वरूप ऐसा मानना उचित प्रतीत होता है कि वे लौकान्तिक देव हुए होंगे। ये अलौकिक पुरुषरत्न थे, यह उनकी जीवनी से ज्ञात होता है। माता के उदर में जब ये महापुरुष आये थे तब सत्यवती माता के हृदय में १०८ सहस्रदल युक्त कमलों से जिनेन्द्र भगवान् की वैभवसहित पूजा करने की मनोकामना उत्पन्न हुई थी। आज के जड़वाद तथा विषयलोलुपता के युग में उन्होंने जो १. चत्तारिवि खेत्ताई आउगबंधेण होदिसम्मत्तं । अणुवद-महव्वदाइंण लहइदेवाउगं मुत्तं ॥- गोम्मटसार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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