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________________ सल्लेखना हमें भी समाधि लाभ हो उसे देखकर लोगों के हृदय में विविध भाव उत्पन्न हो रहे थे। ज्ञानीजन सोचते थे । हे साधुराज ! जैसी तुम्हारी सफल संयम पूर्ण जीवन यात्रा हुई है। श्रेष्ठ समाधिरूपी अमृत तुम प्राप्त किया ऐसा ही जिनेन्द्र देव के प्रसाद से हमें भी अपना जन्म कृतार्थ करने का अवसर प्राप्त हो । ४०० जीवन की उज्ज्वल घटनाओं की स्मृति धीरे-धीरे लोग पर्वत से नीचे उतर आए, रात्रि को लगभग ८ बजे पर्वत पर हम पुनः पहुँचे । तपोनि से पुनीत देह को घेरे भौतिक अग्नि वेग से जल रही थी। हम वहीं लगभग ३ घंटे बैठे । उठने का मन ही नहीं होता था । आचार्यश्री के जीवन की पुण्य घटनाओं तथा सत्संगों की बार-बार याद आती थी। मन में गहरी वेदना उत्पन्न होती थी, कि इस वर्ष का (सन् १९५५) का पर्युषण पर्व इन महामानव के समीप बिताने का मौका ही न आया । अग्नि की लपटें मेरी ओर जोर-जोर से आती थी। मैं उनको देखकर विविध विचारों में निमग्न हो जाता था । सांत्वना के विचार अब महाराज के दर्शन और सत्संग का सौभाग्य सदा के लिए समाप्त हो गया, इस कल्पना से अन्त:करण में असह्य पीड़ा होती थी। तो दूसरे क्षण महापुराण का कथन याद आता था, कि आदिनाथ भगवान् के मोक्ष होने पर तत्त्वज्ञानी भरत शोक-विह्वल हो रहे थे । उनको दुःखी देखकर वृषभसेन गणधर ने सांत्वना देते हुए कहा था, "अरे भरत ! निर्वाण कल्याणक होना आनन्द की बात है । उसमें शोक की कल्पना ठीक नहीं है, 'तोषे विषाद: कुत: ।" इसी प्रकार गुरुदेव की छत्तीस दिन की लम्बी समाधि श्रेष्ठ रीति से पूर्ण हो गई । यह संतोष की बात मानना चाहिए। शोक की बात सोचना अयोग्य है। ऐसे विचार आने पर मनो वेदना कम होती थी । आगम में कहा है, 'न हि समाधिमरणंशुचे' समाधिमरण शोक का कारण नहीं है । शिष्यों को संदेश स्वर्गयात्रा के पूर्व आचार्यश्री ने अपने प्रमुख शिष्यों को यह संदेश भेजा था कि हमारे जाने पर शोक मत करना और आर्तध्यान नहीं करना । Jain Education International आचार्य महाराज का अमर संदेश तो हमने निर्वाण प्राप्ति के पूर्व तक का कर्तव्य - पथ ता गया है। उन्होंने समाज के लिए जो हितकारी बात कही थी वह प्रत्येक भव के काम की वस्तु है । उसका मूल्य त्रिलोक भर के पदार्थ नहीं हैं। उसके द्वारा सभी श्रेष्ठ ऋद्धि, सिद्धि, वैभव आदि मिलते हैं। वे वाक्य थे । “सम्यक्त्व धारण करो ।” वैसे उनका सारा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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