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________________ सल्लेखना ४०२ रत्नत्रय धर्म की प्रभावना की है और वर्धमान भगवान् के शासन को वर्धमान बनाया है। उससे तो ये भावी जिनेश्वर या जिनेश्वर के नंदनसदृश लगते रहे हैं। हमारी तो यही धारणा है कि लौकान्तिक देवर्षि की अवधि पूर्ण होने के पश्चात् ये धर्मतीर्थंकर होंगे। भट्टारक जिनसेन स्वामी का स्वप्न ___ कोल्हापुर के भट्टारक जिनसेनजी को ७-७-५३ में स्वप्न आया था कि आचार्य शांतिसागरजी महाराज तीसरे भव में तीर्थंकर होंगे। भट्टारक महाराज की बात सुनकर आचार्य महाराज ने भी कहा कि : “१२ वर्ष पूर्व हमें भी ऐसा ही स्वप्न आया था कि तुम पुष्करार्ध द्वीप में तीर्थंकर पद धारण करोगे।" कभी-कभी अयोग्य, अपात्र, प्रमादी, विषयाशक्त व्यक्ति भी स्वयं तीर्थंकर होने की कल्पना कर बैठते हैं, किन्तु उनका स्वयं का जीवन आचरण तथा श्रद्धा सूचित करते हैं कि वह प्रलापमात्र है। रत्नत्रय के द्वारा पुनीत जीवन वाले श्रमण राज का श्रेष्ठ विकास पूर्णतया सुसंगत लगता है। - जैनागमन में वर्णित अष्टांग महानिमित्त ज्ञान में स्वप्न ज्ञान का समावेश है। स्वप्न द्वारा भविष्य का बोध होता है। जो स्वप्न वातादि विकारों से उद्भुत होते हैं, उनकी सत्यता सदा शंकास्पद रहती है। पाश्चात्य लोग भी इस विषय को महत्वपूर्ण मानते हैं। १४ अप्रैल सन् १८६५ को अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहमलिंकन ने उच्च सरकारी पदाधिकारियों की बैठक बुलाकर उनसे कहा कि उन्हें कोई महत्वपूर्ण खबर अवश्य ही सुनने को मिलेगी। उन्होंने बताया कि उन्होंने स्वप्न देखा है कि वे ऐसी नाव में बैठे हैं कि जिसमें पतवार नहीं है। इस स्वप्न की बात बताने के पाँच घंटे बाद ही जॉन विल्डीजवूथ की बन्दूक से उनकी हत्या हो गई" (नवभारत टाईम्स, २० नवम्बर १९५५, पृष्ठ ८)। महाराज में सोलहकारणभावनाओं का अपूर्व समागम था। जिनसे तीर्थंकर रूप श्रेष्ठ फल मिलता है। शंका यह शंका की जा सकती है कि केवली, श्रुतकेवली के चरण-मूल में तीर्थंकर प्रकृति का बंध प्रारंभ होता है, तब आज उक्त दोनों विभूतियों के अभाव में किस प्रकार तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो सकेगा? समाधान यथार्थ में शंका उचित है; किन्तु इस भव में तीर्थंकर प्रकृतिकाबंधन करके, लौकान्तिक पद्वी को छोड़कर पुन: नर पदवी धारण करके तो तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो सकता है। विदेह में तीर्थंकर पंचकल्याणक वाले होते हैं ; दीक्षा, ज्ञान तथा मोक्ष तीन कल्याणक वाले भी होते हैं, ज्ञान और मोक्ष ये दो कल्याणक वाले भी होते हैं। गृहस्थावस्था में यदि तीर्थंकर प्रकृति का बंध किसी चरमशरीरी आत्मा ने किया तो उसके तीन कल्याणक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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