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________________ ३६३ चारित्र चक्रवर्ती उसका दर्शन लोगों को नहीं होता; हाँ शैलशिखर से उस सूर्य की कुछ-कुछ ज्योति दिखाई पड़ रही है। उस समय महाराज की स्थिरता अद्भुत थी। उनकी सारी ही बातें अद्भुत रही हैं। जितने काम उस विभूति के द्वारा हुए वे विश्व को चकित ही तो करते थे। __ ता. १३ को महाराज का दर्शन दुर्लभ बन गया। हजारों यात्री आए थे, किन्तु उनकी शरीरस्थिति को देखकर जन-साधारण को दर्शन लाभ मिलना अक्षम्य दिखने लगा। उस दिन बाहर से आगत टेलीफोनों के उत्तर में हमने यह समाचार भेजा था-"महाराज की प्रकृति अत्यंत क्षीण है दर्शन असंभव है। नाड़ी कमजोर है । भविष्य अनिश्चित है। आसपास की पंचायतों को तार या फोन से सूचना दे दीजिये, जिससे दर्शनार्थी लोग यहाँ आकर निराश न हों।" अन्य लोगों ने भी आसपास समाचार भेज दिए कि अब यह धर्म सूर्य शीघ्र ही लोकान्तर को प्रयाण करने को है। जैसे-जैसे समय बीतता था, वैसे-वैसे दूर-दूर के लोग अहिंसा के श्रेष्ठ आराधक के दर्शनार्थ आरहे थे। बहुभाग तो ऐसे लोगों का था, जिनके मन में दर्शन के प्रति अवर्णनीय ममता थी। कारण, उन्होंने जीवन में एक बार भी इन लोकोत्तर साधुराज की प्रत्यक्ष वन्दना न की थी। उस समय जनता में अपार क्षोभ बढ़ रहा था। अन्तिम दर्शन कुछ बेचारे दुःखी हृदय से लौट गए और कुछ इस आशा से कि शायद आगे दर्शन मिल जायँ ठहरे रहे। अन्त में सत्रह सितम्बर को सुबह महाराज के दर्शन सबको मिलेंगे, ऐसी सूचना ता. १६ की रात्रि को लोगों को मिली। बड़े व्यवस्थित ढंग से तथा शांतिपूर्वक एक-एक व्यक्ति की पंक्ति बनाकर लोगों ने आचार्यश्री के दर्शन किये। महाराज तो आत्मध्यान में निमग्न रहते थे। वास्तव में ऐसा दिखता था मानो वे लेटे-लेटे सामायिक कर रहे हों। बात यथार्थ में भी यही थी। पीठ का दर्शन जब मैं पर्वत पर पहुंचा, तब महाराज करवट बदल चुके थे, इससे उनकी पीठ ही दिखाई पड़ी। मैंने सोचा-“सचमुच में अब हमें महाराज की पीठ ही तो दिखेगी। उन्होंने अपना मुख परलोक की ओर कर लिया है। उनकी दृष्टि आत्मा की ओर हो गई है। इस जगत् की ओर उन्होंने पीठ कर ली है।" पर्वत से लौटकर नीचे आए। लोगों को बड़ा सन्तोष हो गया कि जिस दर्शन के लिए वे हजारों मील से आए, वह कामना पूर्ण हो गई। कई लोग दूर-दूर से पैदल भी आए। आने वालों में अजैन भी थे। सब को दर्शन मिल गए, इससे लोगों के मन में सन्तोष था; किन्तु रह-रह कर याद आती थी कि यदि ऐसी व्यवस्था पहले हो जाती, तो निराश लौटे लोगों की कामना पूर्ण हो सकती थी। वास्तव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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