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सल्लेखना
३६४ में अंतराय कर्म का उदय आने पर समझदार व्यक्तियों का विवेक भी साथ नहीं देता है और अनुकूल सामग्री भी प्रतिकूलता धारण करने लगती है।
मुझे आशा नहीं थी कि अब पर्वत पर पुन: गुरुदेव के पास पहुँचने का सौभाग्य मिलेगा। मैं तो किसी-किसी भाई से कहता था, “गुरुदेव तो हृदय में विराजमान हैं, वे सदा विराजमान रहेंगे। उनके भौतिक शरीर के दर्शन न हुए, तो क्या? मेरे मनोमंदिर में तो उनके चरण सदा विद्यमान हैं। उनका दर्शन तो सर्वदा हुआ ही करेगा।"
कुछ समय के पश्चात् मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि एक व्यक्ति मेरे पास आया और उसने कहा कि पर्वत पर आपको बुलाया है। परलोकयात्रा के पूर्व
मैं पर्वत पर लगभग तीन बजे पहुंचा और महाराज की कुटी में गया। वहाँ मुझे उन क्षपकराज के अत्यन्त निकट लगभग दो घंटे रहने का अपूर्व अवसर मिला। वे चुपचाप लेटे थे, कभी-कभी हाथों का संचालन हो जाता था। अखण्ड सन्नाटा कुटी में रहता था। महाराज की श्रेष्ठ समाधि निर्विघ्न हो, इस उद्देश्य से मैं भगवान् का जाप करता हुआ तेज:पुंज शरीर को देखता था। मेरी विचारधारा
मन में विविध प्रकार के विचार आ रहे थे। मैं सोचता था-“धन्य हैं ये महापुरुष, धन्य है इनकी पवित्र श्रद्धा, धन्य है इनकी लोकोत्तर तपस्या।" मुझे तो ऐसा लगा कि मैं जीवित सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के समीप बैठा हूँ। शरीर मात्र भी परिग्रह से पृथक्ररत्नत्रय की ज्योति से समलंकृत वह आत्मा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि' रूप सूत्रांश का स्मरण कराती थी।
बार-बार मन में यह विचार आता था कि इस क्षीण शरीर में कितनी बलवान आत्मा है। वह मृत्यु से अलौकिक युद्ध कर रही है। वह असंख्यातगुणी कर्मों की निर्जरा कर रही है। इस आत्मा की दर्शन-विशुद्धता अलौकिक है। महाराज का सशक्त शरीर तो और भी दिन रहता; किन्तु जिनाज्ञानुसार इन्होंने अमर सल्लेखना ली। छोटे-छोटे जीवों के प्राण रक्षण की प्रतिज्ञा रूप प्राणी-संयम की ये सचमुच में प्राण पण से रक्षा कर रहे थे। ऐसी ही रत्नत्रय से समलंकृत पराक्रमी आत्मा गणधर तीर्थंकर आदि की आध्यात्मिक पदवी को प्राप्त करती है। महाबल से तुलना
स्वर्ग प्रयाण करने के चौदह घण्टे पूर्व जो मैंने दो घण्टे पर्यन्त क्षपकराज कीशरीरस्थिति का सूक्ष्म निरीक्षण किया था, उसकी तुलना महापुराण में वर्णित महाबल राजा की बाईस
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