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________________ सल्लेखना ३६२ लेने पर पुद्गल का घात होता है और पुद्गल का पक्ष लेने पर जीव का घात होता है। इसे वे मराठी में इस प्रकार कहते थे - "जीवाचा पक्ष घेतला तर पुद्गलाचा घात होतो, पुद्गलाचा पक्ष घेतला तर जीवाचा घात होतो।" इस कारण आहार - परित्याग करने की ओर उनकी प्रवृत्ति हुई। अलौकिक उपवास दो-तीन माह से तो उनकी शरीर से अत्यन्त विमुख - वृत्ति हो गई थी । १४ अगस्त, सन् १९५५ के आहार के उपरान्त उन्होंने आहार को छोड़ा। दूरदर्शी तथा विवेकी साधु होने के कारण उन्होंने जलग्रहण की छूट रखी थी, किन्तु चार सितम्बर को अन्तिम बार जल लेकर उससे भी सम्बन्ध छोड़ दिया था। जगत् में बहुत-से लोग उपवास करते हैं । वे कभी तो फलाहार करते हैं, कभी रस ग्रहण करते हैं, कभी औषधि लेते हैं, इसके अतिरिक्त और भी प्रकार से शरीर को पोषण प्रदान करते हैं। यहाँ इन आत्मयोगी का उपवास जगत् के लोगों से निराला था । शरीर को स्फूर्ति देने के लिए घी, तेल आदि की मालिश का पूर्ण परित्याग था। सभी प्रकार की भोज्य वस्तुएँ छूट गई थी। उन्होंने जब भी जल लिया था, तब दिगम्बर मुनि की आहार ग्रहण करने की विधिपूर्वक ही उसे ग्रहण किया था । खड़े होकर, दूसरे का आश्रय न ले, अपने हाथ की अंजुलियों द्वारा थोड़ा-सा जलमात्र लिया था चार सितम्बर को उक्त स्थिति में इन्होंने चार-छह अंजुली जल लिया था, परन्तु तीस दिन के अनाहार शरीर को खड़े रखकर जल लेने की क्षमता भी उस देह में नहीं रही थी । वास्तव में तो चौरासी वर्ष के वृद्ध तपस्वी के शरीर द्वारा ऐसी साधना इतिहास की दृष्टि से भी लोकोत्तर मानी जायगी। आत्मबल का प्रभाव शरीररूपी गाड़ी तो पूर्णत: शक्तिशून्य हो चुकी थी, केवल आत्मा का बल शरीर को खींच रहा था । यह आत्मा का ही बल था, जो सल्लेखना के २६ वें दिन आठ सितम्बर को सायंकाल के समय उन साधुराज ने २२ मिनिट पर्यन्त लोककल्याण के लिए अपना अमर संदेश दिया, जिससे विश्व के प्रत्येक शांतिप्रेमी को प्रकाश और प्रेरणा प्राप्त होती है। चिन्तापूर्ण शरीरस्थिति ता. १३ सितम्बर को सल्लेखना का ३१ वाँ दिन था । उस दिन गुरुदेव की शरीरस्थिति बहुत चिन्ताजनक हो गई और ऐसा लगने लगा कि अब इस आध्यात्मिक सूर्य के अस्तंगत होने में तनिक भी देर नहीं है। यह सूर्य अब क्षितिज को स्पर्श कर चुका है। भूतल पर से For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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