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________________ ३६१ चारित्र चक्रवर्ती जीव हा एकलाच आहे पुद्गल नाही. ( जीव का पक्ष ग्रहण करने पर पुद्गल का घात होता है, पुद्गल का पक्ष ग्रहण करो, तो आत्मा का घात होता है, परन्तु मोक्ष को जाने वाला जीव अकेला ही है, पुद्गल के साथ में मोक्ष नहीं जाता है। ) " अग्नि में तपाया गया सुवर्ण जिस प्रकार परिशुद्ध होता है, उसी प्रकार सल्लेखना की तपन द्वारा आचार्य महाराज का जीवन सर्व प्रकार से लोकोत्तर बनता जा रहा था। दूरवर्ती लोग उस विशुद्ध जीवन की क्या कल्पना कर सकते हैं ? सल्लेखना की बेला में महाराज केवल प्रशममूर्ति दिखते थे। उस समय वे नाम निक्षेप की दृष्टि से नहीं, अन्वर्थता की अपेक्षा शान्ति के सिंधु शांतिसागर थे । वे पूर्णतया अलौकिक थे। जिनेश्वर के लघुनंदन संसार में मृत्यु के नाम से घबड़ाता है और उसके भय से नीच से नीच कार्य करने को तत्पर हो जाता है, किन्तु शांतिसागर महाराज मृत्यु को चुनौती दे, उससे युद्ध करते हुए जिनेश्वर के नंदन के समान शोभायमान होते थे । मृत्युंजय बनने का मार्ग संसार के देव - दानव - मानव आदि प्राणियों पर मृत्युराज का आतंक है। ऐसा कौन, है जिस पर यम का शासन न हो ? ऐसे अद्भूत पराक्रम वाले यम को पछाड़कर अपने प्रकृति सिद्ध अधिकार अमृतत्व को प्राप्त करने की श्रेष्ठ कला जिनेन्द्र के शासन में बताई गई है। अहिंसा की पूर्णता जब जीवन में प्रतिष्ठित हो जाती है, तब यह प्राणी अमृतत्व का अधिकारी बनता है। सुव्यवस्थित, सुसम्बद्ध तथा निर्दोष रूप से अहिंसा का प्रतिपादन तथा प्रतिपालन अनेकान्त शासन में ही हुआ है। इससे अमृतत्व की उपलब्धि का एकमात्र उपाय जिनेन्द्रदेव की वीतराग देशना का अनुकरण करना हैं। जैन शास्त्र कहते हैं कि मृत्यु विजेता बनने के लिए मुमुक्षु को मृत्यु के भय का परित्याग कर उसे मित्र सदृश मानना चाहिए। इसी मर्म को हृदयस्थ करने के कारण आचार्य शांतिसागर महाराज ने अपने जीवन की संध्या बेला पर समाधिपूर्वक -: भाव सहित प्राणों का परित्याग करके रत्नत्रय धर्म की रक्षा का सुदृढ़ संकल्प किया था। महाराज की धारणा - शान्त अन्न के द्वारा जिस देह का पोषण होता है, वह तो अनात्म रूप है। इस बात को सभी लोग जानते हैं । परन्तु इस पर विश्वास नहीं हैं। महाराज ने कहा था- "अनंत काला पासून जीव पुद्गुल दोन्हीं भिन्न आहे। हे सर्व जग जाणतो, परन्तु विश्वास नांहीं । " उनका यह कथन भी था तथा तदनुसार उनकी दृढ़ धारणा थी कि - " जीव का पक्ष For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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