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________________ सल्लेखना ३६० महापुरुष की गम्भीरता और उच्चता को राग-द्वेष के पंक में लिप्त मानव नहीं जान सकता है। वे असता या पुष्पमाला में भेद नहीं करते थे । सर्पराज को भी वे उसी स्नेह से कृतार्थ करते थे, जिस करुणा द्वारा वे भक्तजनों को उपकृत करते थे । इसका यह अर्थ नहीं है कि दुष्ट व्यक्ति तथा साधु समान हो गए । वे स्वभावानुसार भिन्न ही रहते हैं और अपनी-अपनी कषायानुसार भावी जीवन का निर्माण करते हैं। श्रेष्ठ महात्मा राग द्वेष की मलिनता से ऊँचे उठकर साम्यभावरूप वीतरागता को प्राप्त करते हैं । यह वीतरागता ही मोक्ष की जननी है। वीतराग और वीतरागता के आश्रय ta का उत्कर्ष होता है। सराग और सरागता की समाराधना से आत्मा का पतन होता है। इससे आत्मा संसार में परिभ्रमण करती है। महाराज के विषय में यह श्लोक पूर्णतया चरितार्थ होता था, कारण वे, सच्ची तथा शाश्वतिक शांतिदायिनी जननी समाधि की गोद में विराजमान थे : साम्यं मे सर्वभूतेषु वैरं मम् न केनचित् । आशां सर्वां परित्यज्य, समाधिमहमाश्रये ॥ ३ ॥ अर्थ : मैं सम्पूर्ण आशाओं को त्यागकर समाधि की शरण ग्रहण करता हूँ । सम्पूर्ण प्राणधारियों के प्रति मेरे हृदय में समता का भाव है। किसी भी जीव के प्रति मेरे मन में विरोध नहीं है। आचार्य की दृष्टि आचार्यश्री की समाधि का निकट से निरीक्षण करने पर उक्त पद्य की अक्षरश: अन्वर्थता दिखी। उनका आत्मविश्वास सामायिक के इस पद्य में निबद्ध है एको मे शाश्वतश्चात्मा, ज्ञान दर्शन लक्षणः । शेषा बहिर्भवाः भावा:, सर्वे संयोगलक्षणा: ॥१० ॥ अर्थ : मेरी आत्मा का स्वरूप ज्ञान और दर्शन है। मेरी आत्मा अकेली है। वह अविनाशी है। इसके सिवाय बाह्य पदार्थ मुझ से भिन्न हैं। उनका मेरे साथ संयोग मात्र है। मेरे साथ तादात्म्य नहीं हैं। आगम का सार आचार्य महाराज ने सल्लेखना के २६ वें दिन के अमर संदेश में कहा ही था - "जीव एकला आहे, एकला आहे ! जीवाचा कोणी नांही रे बाबा! कोणी नांही. (जीव अकेला है, अकेला है। जीव का कोई नहीं बाबा, कोई नहीं है । ) " इसके सिवाय गुरुदेव के ये बोल बड़े अनमोल रहे- “जीवाचा पक्ष घेतला तर पुद्गलाचा घात होतो । पुद्गलाचा पक्ष घेतला तर जीवाचा घात होतो । परन्तु मोक्षाला जाणारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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