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________________ ३८६ चारित्र चक्रवर्ती की वंदना मत करो। उनकी बात भी मत सुनो। यह संसार बढ़ाने का कारण है। इससे बड़ा कोई पाप नहीं है। मिथ्यात्व से बड़ा पाप दूसरा नहीं है। इस विशाल मूर्ति की भक्ति द्वारा साधारण जनता का अपार कल्याण होगा। सचमुच में मूर्ति कल्पवृक्ष होगी।" आज महाराज की भविष्यवाणी अक्षरश: चरितार्थ हो रही है। सबकी शुभकामना आचार्य महाराज वास्तव में लोकोत्तर महात्मा थे। विरोधी या विपक्षी के प्रति भी उनके मन में सद्भावना रहती थी। एक दिन मैंने कहा-“महाराज ! मुझे आशीर्वाद दीजिये, ऐसी प्रार्थना है।" महाराज ने कहा था-"तुम ही क्यों जो भी धर्म पर चलता है, उसके लिये हमारा आशीर्वाद है। जो हमारा विरोध करता है, उसे भी हमारा आशीर्वाद है कि वह सद्बुद्धि प्राप्त कर आत्मकल्याण करे।" विशाल हृदय सल्लेखना के समय कुंथलगिरि में हमें महाराज के विशाल हृदय और लोकोत्तर भाव का दर्शन हुआ। जो लोग महाराज के प्रति कलुषित प्रवृत्ति वाले रहे थे वे लोग भी उन साधुराज के लिए विशेष धर्म -प्रेम के पात्र थे। असली भक्तों को जहाँ स्थान नहीं मिलता था, वहाँ वे लोग उन्हें घेरे रहते थे। चन्दनतुल्य जीवन वे चंदन के वृक्ष के समान थे, जो सर्पराज को भीआश्रय देता है। चंदन के साथ उनका सादृश्य सार्थक है। स्वर्गारोहण के उपरांत उनका देह (शरीर) चंदन, कपूर आदि से भस्म हुआ था। उस समय समझ में आया कि चन्दन के समान ये सदा सुवास देते थे। इससे चंदन की लकड़ी द्वारा ही उन सद्गुणों के पुंज-रूप आत्मा के आश्रय-स्थल शरीर को दाह योग्य समझा गया था। वे चन्दन के समान ही गुणधर्म वाले थे। येलगुल में जिस घर में उनका जन्म हुआ था। वहाँ चन्दन का वृक्ष हमने १६७० में जाकर प्रत्यक्ष देखा। सच्चा साम्य भाव ___ कुंथलगिरि में महाराज के अत्यंत निकट आने जाने वाले कई व्यक्तियों की विरोधियों के रुप में प्रसिद्ध रही थी। उनके विरुद्ध कृत्यों से महाराज भी सुपरिचित थे। सामान्य श्रेणी का साधु ऐसे व्यक्तियों को अपने पास भी न प्रवेश करने देता; किन्तु धन्य हैं वे आचार्यशिरोमणि साधुराज श्रीशांतिसागरजी जिन्होंने राग तथा द्वेष का त्याग करके भक्तोंअभक्तों, मित्रों -अमित्रों आदि सभी पर सामान्यभाव धारण किया था। कुंथलगिरि के पर्वत पर वे साम्यभाव से समलंकृत लोकोत्तर महापुरुष लगते थे। ऐसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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