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चारित्र चक्रवर्ती
उसके तत्त्व का निरूपण करने वाले निस्पृह, सहृदय और सच्चरित्र व्यक्ति होने चाहिए और ऐसे धर्म सेवकों के साथ धनिकों में विवेक चाहिए, विद्वानों में संयम चाहिए और त्यागियों में विद्या का रस उत्पन्न होना चाहिए। इस प्रकार की सामग्री का समागम होने पर जैनधर्म की प्रभावना हो सकती है।
आगम की उक्ति
उत्तरपुराण (६१-७) में गुणभद्रस्वामी ने लिखा है कि विद्वत्ता के साथ संयम तथा सदाचरण का समागम आवश्यक है :
विद्वत्त्वं सच्चरित्रत्वं मुख्यं वक्तरि लक्षणम् । अबाधितस्वरूपं वा जीवस्य ज्ञानदर्शने ॥
अर्थ : जिस प्रकार ज्ञान तथा दर्शन जीव के अबाधित लक्षण हैं, उसी प्रकार विद्वत्ता तथा सदाचार वक्ता के मुख्यलक्षण है।
जैनधर्म की अर्जित अवस्था की झाँकी देखने पर ज्ञात होता है कि उस समय प्रकाण्ड धर्माचार्य थे जो ज्ञान के पारगामी थे और श्रेष्ठ संयम के धारक थे। ऐसे महान् आचार्यों का कार्य आज का गृहस्थ यदि करना चाहता है, तो उसमें कम से कम सज्जन मनुष्य के गुण तो होना ही चाहिए और उसे सामान्य श्रावक के सदाचार की परीक्षा में तो उत्तीर्ण होना चाहिए। हमारा तो विश्वास है कि संयम का शत्रु, सद्धर्म की ध्वजा की इज्जत कभी भी नहीं बढ़ा सकता । स्याद्वाद के ध्वज को हाथ में उठाने वालों को पापी, पाखण्डी और प्रतारणा में प्रवीण न होकर मार्दव, आर्जव तथा संयम आदि सद्गुणों का प्रगाढ़ प्रेमी होना चाहिए। आज के अनुकूल युग में हमें जैन धर्म की प्रभावना के कार्य में प्रमाद नहीं करना चाहिए।
असाधारण व्यक्तित्व
आचार्य महाराज का व्यक्तित्व असाधारण रहा है। सारा विश्व खोजने पर भी वे अलौकिक ही लगेंगे। ऐसी महान विभूति के अनुभवों के अनुसार प्रवृत्ति करने वालों को कभी भी कष्ट नहीं हो सकता। एक दिन महाराज ने कहा था- "हम इंद्रियों का तो निग्रह कर चुके हैं। हमारा ४० वर्ष का अनुभव है। सभी इंद्रियाँ हमारे मन के आधीन हो गई हैं। वे हम पर अपना हुकम नहीं चलाती है। "
उन्होंने कहा था- " अब प्राणी संयम अर्थात् पूर्णरूप से जीवों की रक्षा पालन करना हमारे लिए कठिन हो गया है। कारण नेत्रों की ज्योति मन्द हो रही है । अत: हमें सल्लेखना की शरण लेनी पड़ेगी। हमें समाधि के लिये किसी को णमोकार तक सुनाने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
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