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________________ सल्लेखना ३७६ हुए और कहने लगे- “पंडिताई की रक्षा के लिए तुम्हें कुछ भी उत्तर देकर उसका समर्थन करना चाहिए था । " मैंने नम्रता से कहा- “पंडितजी ! मुझमें ऐसी पंड़िताई इसलिए नहीं है कि मैं यथार्थ में आप लोगों के समान पंडित नहीं हूँ, मैंने अंग्रेजी पढ़कर वकालत भी पास की है। आचार्य महाराज ने कहा था- अन्याय पक्ष का पोषण पांडित्य का दूषण है, भूषण नहीं । " विचारपूर्ण प्रवृत्ति " आचार्य महाराज का कवलाना में दूसरी बार चातुर्मास हो रहा था । अन्न परित्याग के कारण उनका शरीर बहुत अशक्त हो गया था। उस समय उनकी देहस्थिति चिंताप्रद होती जा रही थी। एक दिन महाराज आहार के लिए नहीं निकल रहे थे। मैं उनके चरणों में पहुँचा। महाराज बोले- "आज हमारा इरादा आहार लेने का नहीं हो रहा है । ' मैंने प्रार्थना की- "महाराज ! ऐसा न कीजिए। शरीर कमजोर है । चर्या को अवश्य निकलिये । यदि शरीर को थोड़ा जल भी मिल जायगा, तो ठीक रहेगा। यह शरीर रत्नत्रय साधन में सहायता देता है, इसलिए इसके रक्षण का उचित ध्यान आवश्यक है।" मेरे आग्रह करने पर महाराज ने विचार बदल दिया और क्षण भर में वे चर्या को निकल गये थे । कुन्दकुन्द स्वामी ने रयणसार में कहा है : बहुदुक्खभायणं कम्मकारणं विष्णमघणो देहो तं देहं धम्माणुट्ठाणकारणं चेदि पोसए भिक्ख ॥। ११६ ॥ अर्थ : शरीर अनेक दुःखों का भण्डार है। कर्मबंध का कारण है, आत्मा से भिन्न है । उस शरीर का साधु धर्मानुष्ठान का निमित्त कारण होने से इसे आहारग्रहण द्वारा पोषण प्रदान करते हैं। इस आग के प्रकाश में क्षीण शरीर आचार्य महाराज का आहार हेतु जाना पूर्णतया उपयुक्त था। संशोधन में तत्पर मैंने देखा है कि विरुद्ध पक्ष की युक्तियुक्त बात को वे प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार करते रहे। उनके मुख से मैंने बहुत बार यह सुना था - "यदि बालक भी हमें हमारी भूल बतायेगा, तो हम भूल को स्वीकार कर लेंगे।" माता सत्यवती से प्रसूत साधुराज की ऐसी प्रवृत्ति पूर्णतया स्वाभाविक तथा उचित भी थी । उनकी गुणग्रहिता का सुन्दर उदाहरण है । एक छोटी बालिका गुरुदेव के दर्शन हेतु आई थी। उससे पूछा गया- “बेटी ! तू किसकी ?” Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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