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चारित्र चक्रवर्ती मुनिपद के लिए आदर्श ___ महापुराण में सम्राट भरत के विषय में कथित जिनसेन स्वामी की एक बात इस प्रसंग में उल्लेखनीय है। भरतेश्वर का चरित्र तथा उस महापुरुष की शरीर-रचना आदि को विविध शास्त्रपारंगत लोग प्रत्यक्ष देखकर अपना-अपना संशय दूर किया करते थे:
भरतेश्वर मूर्तिमान आयुर्वेद शास्त्र के समान दिखते थे-“आयुर्वेदोनुमूर्तिमान्'(महापुराण, ४१-१४५) और भी कहा है (महापुराण, ४१-१५०) :
अन्येष्वपि कला-शास्त्र-संग्रहेषु कृतागमाः।
तमेवादर्शमालोक्य संशयांशाद् व्यरंसिषुः॥ शास्त्रज्ञ लोग पूर्वोक्त शास्त्रों के सिवाय अन्य कलाशास्त्रों के संग्रह में भरतेश्वर को ही दर्पण समान देखकर संशय विमुक्त होते थे। भरतराज का स्वयं का जीवन कलावेताओं के लिए आदर्शवत् था।
इसी प्रकार यह कथन उचित है कि मुनि धर्म के शास्त्रों को पढ़ते समय आचार्य महाराज की प्रवृत्ति का विचार करते ही शंका दूर हो जाती थी। महाराज की प्रत्येक चेष्टा शास्त्र के विरुद्ध नहीं थी। वे आगम रूपी नेत्र से देखकर प्रवृत्ति करते थे। कुन्दकुन्द स्वामी ने प्रवचनसार, गाथा २३४ में कहा है :
साधुओं के नेत्र आगम हैं, जीवों के चक्षु नेत्र हैं, देवों के चक्षु अवधिज्ञान है, सिद्ध सर्वत: चक्षु हैं। न्यायपक्ष ग्रहण
ऐसी पुण्य जीवनी होते हुए भी दूसरे व्यक्ति की युक्तिपूर्ण बात तो स्वीकार करने में वे संकोच नहीं करते थे। महत्ता इस बात में नहीं है कि यदि मुख से अयोग्य बात निकल गई हो, तो उसको ही ठीक सिद्ध करने में अपने पांडित्य का प्रदर्शन किया जाय। वे आत्मशोधक महात्मा थे। भ्रान्त विचार
किन्हीं-किन्हीं की यही धारणा रहती है कि मुख से जो भी बात निकल जाय, उसे ही ठीक सिद्ध करने में पांडित्य की प्रतिष्ठा है। एक समय महाराष्ट्र के एक बड़े नगर में महाराज विराजमान थे। मैं पर्युषणपर्व में वहाँ तत्त्वार्थसूत्र पर विवेचन करता था। शास्त्र की एक शंका का ठीक समाधान मेरे ध्यान में नहीं आया। मैंने कहा-“इस विषय में मैं अभी कुछ नहीं कह सकता, पीछे शास्त्र देखकर कुछ कह सकूँगा।"
मेरे इस व्यवहार को देख शास्त्र के समाप्त होने पर एक वृद्ध शास्त्रीजी बहुत अप्रसन्न
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