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सल्लेखना
३७२ मैं ध्यान करने बैलूंगा, तब तुम चाकू से मेरी अँगुली आदि काट करके देखोगे तो उस समय मुझे पता नहीं चलेगा।" आगमानुसारी आचरण
प्रश्न-“महाराज! आप तो महान् साधु हैं। आपके समक्ष रहने से सभी साधुओं का निर्वाह होता रहा है, आपके पश्चात् साधुओं का कैसे निर्वाह होगा?
उत्तर-“जैसा आगम में कहा गया है, उसके अनुसार जो भी साधु चलेगा, उसकी रक्षा धर्म के द्वारा होगी। धर्माराधक की विपत्ति धर्म के प्रभाववश नियम से दूर होती है।"
इस वसुधातल पर पाए जाने वाली उनकी आत्मा लोकोत्तर थी, यह बात शत्रुभाव धारण करने वाला दुर्जनों का शिरोमणि भी स्वीकार करेगा। उनकी आत्मा भेदविज्ञान की दिव्य ज्योति से प्रकाशित थी। शरीर के प्रति आसक्ति या मोह क्या कहलाता है, यह बात उनमें तनिक भी नहीं थी। उनकी तत्त्वज्ञानी सदृश चेष्टाएँ मुनिपद स्वीकार करने के पूर्व से ही थीं। घर में निवास करते हुए वे सरोवर में विद्यमान सरोज सदृश अनासक्त थे। अब तो ये सर्वपरिग्रह त्यागी महामुनि थे। उनकी महिमा वाणी के अगोचर थी। पूर्वभवों के संस्कार
सल्लेखना के तीसरे सप्ताह में उन गुरुदेव ने मुझसे कहा था- "हम अपने घर में पाहुने (मेहमान) सदृश रहते थे। हमारा प्रारम्भ से ही किसी के प्रति मोह-भाव नहीं था।" ।
यह निस्पृहता उनकी जन्म-जन्मान्तर की देन थी। इसी से तो उन्होंने कई बार कहा था-"हम पूर्वभवों में मुनिपद धारण कर चुके हैं, ऐसा हमें लगता है।"
सल्लेखना के समय भी उन साधुराज की वाणी से पुन: उसी कथन का प्रसंगवश समर्थन हुआ। ऐसी पूज्यतम एवं अत्यन्त विशुद्ध आत्मा की साधुत्व की स्थिति में अन्त:करण वृत्ति की उच्चता का मूल्य बहिरात्मा वृत्ति में निमग्न लोग क्या आँक सकते है ? रत्नत्रय समलंकृत आत्मा की महत्ता को विषयान्ध तथा हिये की आँखों से हीन' आदमी जान नहीं सकता है। जन्मान्ध सूर्य के दिव्य प्रकाश के सौन्दर्य का वर्णन नहीं कर सकता है। फिर भी आचार्यश्री के जीवन की बाहरी बातों से उनकी श्रेष्ठता अधम से अधम व्यक्ति स्वीकार किए बिना नहीं रह सकता । सल्लेखना के लिए मानसिक तैयारी
यम सल्लेखना लेने के दो माहपूर्व से ही उनके मन में शरीर के प्रति गहरी विरक्ति का भाव प्रवर्धमान हो रहा था। इसका स्पष्ट पता इस घटना से होता है। कुंथलगिरि आते समय एक गुरुभक्त ने महाराज की पीठ में दाद रोग को देखा। उस रोग से उनकी पीठ और कमर का भाग विशेष व्याप्त था।
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