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चारित्र चक्रवर्ती
समान हैं। हम किसी में भी भेद नहीं देखते हैं । ऐसी स्थिति में वर्धमानसागर बार-बार हमें क्यों दर्शन के लिये कहता है ।'
उस व्यक्ति ने बुद्धिमत्तापूर्वक कहा - "महाराज ! वे आपके दर्शन अपने भाई के रूप में नहीं करना चाहते हैं । आपने उन्हें दीक्षा दी है, अतः वे अपने गुरु का दर्शन करना चाहते हैं ।'
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महाराज बोले- "यदि ऐसी बात है, तो वहाँ से ही स्मरण कर लिया करे । यहाँ आने की क्या जरूरत है ?"
कितनी मोहरहित, वीतरागपूर्वक परिणति आचार्यश्री की थी। विचारवान् व्यक्ति आश्चर्य में पड़े बिना न रहेगा। जहाँ अन्य त्यागी लौकिक सम्बन्धों और पूर्व सम्पर्कों का विचार कर मोही बन जाते हैं। वहाँ आचार्यश्री अपने सगे ज्येष्ठ भाई के प्रति भी आदर्श वीतरागता का रक्षण करते थे । वास्तव में वे पवित्र साधु थे । उनकी साधुत्व की कल्पना प्रारम्भ से ही उज्ज्वल थी । उनमें हीन संस्कार, हीन प्रवृत्तियों का लेश भी न था । वे अद्भुत मनस्वी मुनीश्वर थे । संयमविरोधी भी उनको देख प्रभावित होता था । दातार को चेतावनी
सन् १९२५ की बात है। उस समय पूज्यश्री नसलापुर में विराजमान थे । मुनि सागरजी उस समय गृहस्थ थे। उनके हृदय में सत्य, श्रद्धा और सद्गुरु के प्रति निर्मल भक्ति का भाव नहीं उत्पन्न हुआ था।
श्री नेमण्णा ने महाराज से पूछा था - "साधु किसको कहते हैं ?”
महाराज ने कहा था- “जिनके पास परिग्रह न हो, कषाय न हो, दुनिया की झंझटें न हों, जो स्वाध्याय - ध्यान में लीन रहता हो, उसे साधु कहते हैं।"
धन के लालची साधुओं का वर्णन करते हुए महाराज ने कहा था- "ऐसे भी साधु बहुत होते थे, जो पैसा रखते थे । कमण्डलु में पैसे डलवाते थे। ऐसे साधु को पैसा देने वाला पहले दुर्गति को जाता है। तुम पैसा देकर के पहले स्वयं क्यों दुर्गति को जाते हो ?” इससे आचार्यश्री की स्फटिक सदृश विशुद्ध दृष्टि स्पष्ट होती है। कोई गृहस्थ साधु के हितशत्रु किन्तु भक्तरूपधारी बनकर उनको रागादिवर्धक सामग्री देते हैं। इस धर्मविरुद्ध कार्य से ऐसे दातार कुगति में जाते हैं।
गंभीर समाधान
कुंथलगिरि आते समय मार्ग में महाराज से एक सुन्दर प्रश्न पूछा गया था, “महाराज ! सुकुमाल मुनि का शरीर जब श्रृंगाली खा रही ती, तब उनको कष्ट होता था या नहीं ?" महाराज बोले, " ध्यान की निमग्नता में बाहर की स्थिति का पता नहीं चलता है। जब
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