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________________ ३७३ चारित्र चक्रवर्ती दाद की दवा भक्त ने कहा-“महाराज ! इस दाद की दवाई क्यों नहीं करते ? दवा लगाने से यह शीघ्र दूर हो जायगी।" __ महाराज बोले-“अरे ! इसमें बहुत दवाई लगाई गई। तेजाब तक लगाया गया; किन्तु यह बीमारी हमारा पिण्ड नहीं छोड़ती है। हमारे पास एक दवाई है, उसे लगायेंगे तो यह रोग नष्ट हो जायगा और शरीर रोगमुक्त हो जायगा। भक्त बोला-"अभी दवा क्यों नहीं लगाते ? आगे लगावेंगे, ऐसा क्यों कहते हैं ? बताईये, कौन दवा है ? मैं लगा दूँगा।" महाराज बोले-“अरे ! वह दवा तू नहीं जानता। मैं उसे दो माह में लगाकर इस शरीर को पूरा ठीक कर दूंगा।" शरीर में गहरी विरक्ति इसके अनन्तर महाराज की मुद्रा गम्भीर हो गई और वे कहने लगे-“यह शरीर हमें बहुत दिनों से खूब तंग करने लगा है। पहले दाँतो ने तकरार की झगड़ा किया। वे सब चले गए। इसके बाद आँख ने गड़बड़ शुरु की। धीरे-धीरे एक आँख की ज्योति मन्द हो गई। बाद में दूसरी भी जाने को तैयार हो रही है। देखो! हमने जीवन में किसी की गुलामी नहीं की। फिर भी इस आँख की खूब दवा की। सुबह-शाम दवा लगाते रहे। दवा लगाते-लगाते हम थक गए। अब शरीर की हमको फिकर नहीं है। थोड़े दिन में समाधि धारण कर इस शरीर को छोड़कर नवीन निरोग और स्वच्छ शरीर धारण करेंगे, तब कमर की दाद वगैरह अपने आप दूर भाग जायगी।" _ आचार्यश्री की इस वाणी में उनकी यम-सल्लेखना के बीज अंकुरित पाए जाते थे। गुरुदेव की वाणी सुनकर बेचारा भक्त चुप हो गया। महाराज की अनासक्ति अद्भुत थी। शरीर में भेद-बुद्धि एक बार उन्होंने मुझसे सन् १९४६ में कवलाना में पूछा था-"क्यों पंडितजी! चूल्हें में आग जलने से तुम्हें कष्ट होता या नहीं ? मैंने कहा-“महाराज! उससे हमें क्या बाधा होगी। हम तो चूल्हे से पृथक् हैं।" महाराज बोले-“इसी प्रकार हमारे शरीर में रोग आदि होने पर भी हमें कोई बाधा नहीं होती है" यथार्थ में वे पहिले घर में पाहुने सदृश रहते थे और अहिंसा महाव्रती निर्ग्रन्थराज बनने पर तो वे इस शरीर के भीतर ही पाहुने सदृश हो गये थे। जब देह अपना नहीं है, उसका गुण, धर्म आत्मा से पृथक् है तब देह के अनुकूल या विपरीत परिणमन होने पर सम्यग्ज्ञानी सत्पुरुष क्यों राग या द्वेष धारण करेगा? यह तत्त्व बौद्धिक स्तर (Intellec Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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