SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 479
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सल्लेखना ३६४ बात है ? वह तो पर ही है। उसकी सेवा या चिन्ता क्यों करना? उसका क्यों ध्यान करना? देखो! आत्मा के ध्यान से कर्मों का नाश होता है।" हृदय में शान्ति ऐसी मधुर चर्चा चल रही थी कि मन्दिर में अभिषेक की हजारों रुपयों की बोली का बड़े जोर से हल्ला मचना शुरू हो गया। उसको सुनकर मैंने कहा-“महाराज ! इस पूजन की बोली आदि को बन्द करने से गड़बड़ी नहीं होगी । हल्ला नहीं होगा।" महाराज बोले-“बाहर हल्ला हो, गड़बड़ी होउससे हमें क्या है ? जबभीतर शान्ति है, तब बाहर की गड़बड़ी क्या करेगी? आत्मा में शान्ति है, तो बाहर का हल्ला क्या करेगा?" जीवन द्वारा उपदेश यम सल्लेखना के तेरहवें दिन पूज्यश्री को प्रणाम कर मैंने निवेदन किया था-"हम लोगों का महान् सौभाग्य है, जो आप सदृश निरन्तर आत्म स्वरूप का चिन्तवन करने में निमग्न साधुराज के पुण्य चरणों का आश्रय मिला है। आपने जीवन भर रत्नत्रय धर्म की आराधना की है। अब आपका जीवन स्वयं रत्नत्रय धर्म का उपदेश देता है।" उनके पास पहुँचने पर मन में यह भाव पैदा होता था कि इस कुटी के भीतर एक महान् आत्मा विद्यमान है; जो कर्मों का भीषणता से क्षय करती हुई अपूर्व विशुद्धता को प्राप्त कर रही है। वह आत्मा मृत्यु को चुनौती देकर और उसे आमन्त्रित करके अन्त में मृत्युन्जय बनने का परम पुरुषार्थ कर रही है। मृत्यु के आगमन के पूर्व उसका नाम सुनते ही बड़े-बड़ों के होश ठिकाने आ जाते है, किन्तु आप मृत्यु को मित्र सदृश सोचकर उससे भेंट करने को तैयार बैठे हैं। अकिंचनत्व की भावना मैंने कहा- “महाराज! आपके जीवन का प्रियग्रन्थ आत्मानुशासन' रहा है। उसमें गुणभद्रस्वामी ने बड़ी मार्मिक बात लिखी है। ग्रन्थकार महातपस्वी सत्पुरुष हुए हैं, ऐसा अन्य आचार्यों ने लिखा है। प्रतीत होता है कि पक्षोपवासादि के द्वारा प्राप्त प्रकाश से प्रेरित हो उन्होंने लिखा है- 'मैं तुझे एक ऐसी महत्त्व की बात कहता हूँ कि उससे तु त्रिलोक का स्वामी बन जायेगा। वह कथन योगियों के ही गोचर है। वह बात यह है कि तू 'अकिंचनोहं' -मैं अकिंचन हूँ।' मेरे परमाणुमात्र भी पर पदार्थ नहीं हैं, ऐसा चितवन कर। यही परमात्मपद का रहस्य है। आप भी उस अकिंचनत्व की १. अकिंचनोहमित्या त्रैलोक्याधिपतिर्भवैः । योगिगम्य तव प्रोक्तं रहस्यं परमात्मनः॥आत्मानुशासन, ११०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy