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________________ ३६५ चारित्र चक्रवर्ती भावना कर रहे हैं तथा शरीर को आहारादि देना बंद करने के कारण प्रवृत्ति, द्वारा भी अकिंचन रूप हो रहे हैं।" मार्दव परिणाम महाराज बोले-“वे बहुत बड़े आचार्य हो गये हैं। हम उनके सामने क्या चीज हैं ?" मैंने कहा-“महाराज! आज आपके उपवास के दो सप्ताह हो रहे हैं। आपकी तपस्या और आत्मस्थिरता देखकर लोग चकित हैं।" महाराज बोले-“हमने इस शरीर से सब प्रकार के सिंह निष्क्रीड़ित आदि तप किए। हमारे वज्र-वृषभ-संहनन नहीं है, इससे प्रायोपगमन रूप श्रेष्ठ संन्यास के स्थान में हमने इंगिनी मरणरूप संन्यास लिया है। सत्रह प्रकार के मरणों में तीन प्रकार के मरण (भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी, प्रायोपगमन) श्रेष्ठ कहे गये हैं।" पूर्व के महान् आचार्यों का उल्लेख करते हुए महाराजश्री ने कहा-“पहले के बड़े-बड़े आचार्य लगभग १५ वर्ष की अवस्था में दीक्षित हुए थे। वे पहले गुरु के पास रहते थे, पश्चात् आचार्यपद ग्रहण करते थे।" क्षुल्लक दीक्षा ता. २८ अगस्त सन् १९५५, रविवार को आचार्य महाराज के समक्ष उनकी सुन्दर रीति से वैयावृत्य तथा परिचर्या करने वाले ब्र. भरमप्पा को क्षु. दीक्षा का समारम्भ हुआ। ब्र. भरमप्पा ने सर्व उपस्थित संघ से क्षमा माँगी। संघ ने उनकी दीक्षा की भावना की अनुमोदना की। आचार्य महाराज ने वीतरागता के भावों में निमग्न रहते हुए भी ब्र. भरमप्पा पर विशेष करुणावश दीक्षा समारम्भ में उपस्थित रहने की कृपा तथा अपने महान् सेवक भरमप्पा के मस्तक पर दीक्षा सम्बन्धी बीजाक्षरों का न्यास किया। दीक्षा की विधि विद्वान् तथा सहृदय भट्टारक लक्ष्मीसेनजी, कोल्हापुर द्वारा सम्पन्न हुई थी। कुछ समय के पश्चात ब्र. भरमप्पा के हाथ में पिच्छि कमण्डलु आगये। महाराज ने आशीर्वाद देते हुए उनको 'सिद्धसागर' यह महत्वपूर्ण नाम प्रदान किया। महाराज का आशीर्वाद दीक्षा समारम्भ हो गया। इसके पश्चात् दूसरे दिन सायंकाल के समय पूज्यश्री ने कहा-“भरमा! तुमने दीक्षा ली है। हमारा विश्वास है कि तेरी कुगति नहीं होगी। घबड़ाना मत। मिथ्यात्वी साधु भी तपस्या के द्वारा देव पदवी को प्राप्त करते हैं, तब तो तूने जिनेन्द्र कथित व्रत लिए हैं। निश्चय ही तेरी सद्गति होगी।" संयम पालनार्थ मार्मिक प्रेरणा महाराज अपने भक्तों को संयम धारणार्थ अधिक प्रेरणा देते रहते थे। उनके समीप बहुत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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