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चारित्र चक्रवर्ती विवेकपूर्ण प्रवृत्ति का ही दर्शन होता रहा है :
गौतम स्वामी ने जिनेन्द्र से पूछा था-“भगवन् ऐसा उपाय बताइये कि जिससे पापों का भार न उठाना पड़े।"
भगवान् ने कहा था-"विवेकपूर्वक कार्य करो जिससे तुम्हें पापों का बंध नहीं होगा।"
यह सुनकर महाराज बोले-“हमने देखा है, जल नहीं ग्रहण करने के कारण आठदस त्यागियों की बुरी हालत हुई है अत: हमने जल का त्याग नहीं किया है।"
उन्होंने यह भी कहा था-"हमने पानी लेने की छूट इसलिए भी रखी है, कि इससे दूसरे त्यागी भाइयों का मार्गप्रदर्शन होता रहे। नहीं तो हमारा अनुकरण करने पर बहुतों की असमाधि हो जावेगी।" मर्म की बात
एक दिन महाराज कहने लगे-“आत्मचिंतन द्वारा सम्यग्दर्शन होता है। सम्यक्त्व होने पर दर्शन मोह के अभाव होते हुए भी चारित्र मोहनीय कर्म बैठा रहता है। उसका क्षय करने के लिये संयम को धारण करना आवश्यक है। संयम से चारित्र मोहनीय नष्ट होगा। इस प्रकार सम्पूर्ण मोह के क्षय होने से, अर्हन्त स्वरूप की प्राप्ति होती है।" जीवित समयसार
मैंने कहा-"महाराज! आपके समीप बैठने पर ऐसा लगता है कि हम जीवित समयसार के पास बैठे हों। आप आत्मा और शरीर को न केवल भिन्न मानते हैं तथा कहते हैं किन्तु प्रवृत्ति भी उसी प्रकार कर रहे हैं। शरीर आत्मा से भिन्न है। वह अपना स्वभाव नहीं है, परभाव रूप है, फिर खिलाने-पिलाने आदि का व्यर्थ क्यों प्रयत्न किया जाय ? यथार्थ में इस समय आपकी आत्मप्रवृत्ति अलौकिक है।" कथनी और करनी
महाराज बोले-“आत्मा को भिन्न बोलना और विषयों में लगना कैसा आत्मचिन्तन है ? शरीर से आत्मा भिन्न है, अत: आत्मा का ही चिन्तन करना ठीक है। शरीर की क्या
१. कधं चरे कधं चिट्टे कघमासे कधं सए।
कधं भुंजेज भासिज्ज कचं पावं ण वज्झदि॥ जदं चरे जदं चिढे जदमासे बदं सए।
जदं भुंजेज भासेज एवं पावं ण बज्झइ॥-मूलाचार,१०१४-१०१५ प्रश्न - भगवन् कैसे चलें? कैसे खड़े रहें? कैसे बैठे?कैसे शयन करें? कैसे भोजन करें? कैसे बोलें? किस
प्रकार पाप नहीं बंधता है। उत्तर - यत्नपूर्वक चलो, यत्नपूर्वक खड़े रहो, सावधानी से बैठो, सावधानी से शयन करो, सावधानी से
भोजन करो, सावधानीपूर्वक सम्भाषण करो। ऐसा करने से पाप नहीं बंधता है।
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