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________________ सल्लेखना ३६२ एक दिन महाराज को मैंने कुछ आध्यात्मिक सुन्दर श्लोक सुनाए, कारण शास्त्र में लिखा है कि क्षपक के समीप मधुर वाणी से ऐसी बात सुनावें जिससे उसके भावों में वीतरागता के परिणाम की तथा विशुद्धता की वृद्धि हो -' प्रीणयेत् वचोमृतैः' । आध्यात्मिक सूत्र माघनंदि आचार्य रचित आध्यात्मिक सूत्रों को मैं पढ़ने लगा । मैंने कहा- "महाराज देखिये ! जिस आत्मस्वरूप के चिन्तवन में आप संलग्न हैं और जिसका स्वाद आप ले रहे हैं उसके विषय में आचार्य के सूत्र बड़े मधुर लगते हैं, चिदानंद स्वरूपोहम् (मैं चिदानन्द स्वरूप हूँ), ज्ञानज्योति स्वरूपपोहम् ( मैं ज्ञानज्योति स्वरूप हूँ), शुद्धात्मानुभूति स्वरूपोहम् (मैं शुद्ध आत्मानुभूति स्वरूप हूँ), अनंतशक्ति - स्वरूपोहम् (मैं अनन्त स्वरूप हूँ), कृतकृत्योहम् ( मैं कृतकृत्य हूँ), सिद्धं स्वरूपोहम् (मैं सिद्ध स्वरूप हूँ), चैतन्यपुंज - स्वरूपोहम् (मैं चैतन्यपुंजरूप हूँ) ..... - इसे सुनकर महाराज ने कहा था- "यह कथन भी आत्मा का यथार्थ रूप नहीं बताता है। अनुभव की अवस्था दूसरे प्रकार की होती है। जब आत्मा ज्ञानादिगुणों से परिपूर्ण है, तब बार-बार 'अहं' क्या कहते हो। मैं जो हूँ सो हूँ । बार-बार 'मैं', 'मैं' क्यों कहते हो ।" यह कहकर गुरुदेव चुप हो गये । उक्त कथन महायोगी के अनुभव पर आश्रित है। उसकी गंभीरता मनीषियों के मनन योग्य है। शान्त बनो कुछ क्षण के पश्चात् अंत:प्रेरणा से धीरे-धीरे उन क्षपकराज ने कहा- "कर्मों का नाश करना है, तो शांत बनो। कर्मों का मूलोच्छेद शांत भाव से होता है । जब आत्मा अपने स्वरूप में स्थिर होकर शांत रहता है, तब कर्म घबड़ाकर भागते हैं । "" आत्मभवन में निवास मैंने जिनेन्द्र भगवान के स्तोत्र की चर्चा करते हुए उनके अपार सामर्थ्य पर कुछ प्रकाश डाला, तब महाराज कहने लगे- "हम स्तोत्र वगैरह सब पढ़ चुके हैं। उसे हम भली प्रकार जानते हैं किन्तु अब हम अपनी आत्मा के भीतर बैठ गये हैं। अब हमें अन्य बातों से कुछ भी प्रयोजन नहीं है। इस समय हम अपने घर में निज भवन में बैठे सदृश हैं।" जलग्रहण का रहस्य आचार्य महाराज ने यम सल्लेखना लेते समय केवल जल लेने की छूट रखी थी। इस सम्बन्ध में मैंने कहा- "महाराज ! यह जल की छूट रखने का आपका कार्य बहुत महत्त्व का है। वास्तव में आपने विवेकपूर्ण कार्य किया है। आपके जीवन भर के कार्यों में हमें For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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