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चारित्र चक्रवर्ती पुण्य है। भगवान की वाणी के द्वारा सम्यग्दर्शन का लाभ होता है। आत्मध्यान 'आत्मा का चिंतन करो', यह बात दो या तीन वर्षों से वे पुन:-पुन: दोहरा रहे थे।
उन्होंने सन् १९५४ में फलटण में चातुर्मास के पूर्व सब समाज को बुलाकर कहा था"तुम हमारा चातुर्मास अपने यहाँ कराना चाहते हो, तो एक बात सबको अंगीकार करनी पड़ेगी।"
सबने उनकी बात शिरोधार्य करने का वचन दिया।
पश्चात् महाराज ने कहा-“सब स्त्री पुरुष यदि प्रति दिन कम से कम पाँच मिनट पर्यन्त आत्मा का चितवन करने की प्रतिज्ञा करते हैं तो हम तुम्हारे नगर में चातुर्मास करेंगे, अन्यथा नहीं।"
श्रेष्ठ साधुराज के समागम का सौभाग्य सामान्य नहीं था। सब लोगों ने गुरुदेव की आज्ञा स्वीकार की थी। आत्मचिन्तन में उन्हें अपूर्व आनन्द आता था, इससे वे लोकहितार्थ उसकी प्रेरणा करते थे। आत्मानुभव की चर्चा
आत्मानुभव के विषय में एक दिन फलटण में आचार्य महाराज ने बड़ी सुन्दर चर्चा की। उसे सुनकर सभी लोग आनन्दविभोर हो गये थे। उस समय हृदय यही अनुभव करता था, कि यह कथन तत्त्व के अंतस्तत्त्व को स्पर्श करने वाले सम्यग्ज्ञानी का है। शुक सदृश अध्यात्म ग्रंथों का वाचन या निरूपण करने वालों का नहीं है। फिर भी मन में शंका उत्पन्न हुई थी, अत: मैंने धीरे से नम्रतापूर्वक पूछा-“महाराज आप जो आत्मा के अनुभव की चर्चा कर रहे हैं, यह आगम के आधार पर कह रहे हैं या अनुमान से कह रहे हैं या अपने अनुभव से कह रहे है ?
महाराज ने कहा-“यह बात हम अपने अनुभव के आधार पर कह रहे हैं।"
इतना कहने के बाद उनकी मुद्रा अपूर्व गंभीर हो गई। मुझे आनन्द आया, क्योंकि इस कलिकाल में आत्मतत्त्व का रसास्वादन करने वाले महायोगी शांतिसागरजी और उनके पावन चरणों में बैठने का मुझे सौभाग्य मिल रहा है।
महाराज ने कहा-“निकट भव्य को आत्मस्वरूप का अनुभव होता है। जिसको संसार में बहुत समय तक परिभ्रमण करना है, उसे आत्मा का अनुभव नहीं होता है। अभव्य को भी आत्मा का अनुभव नहीं होता है।" कौन भव्य है ? कौन अभव्य है ? यह बात सर्वज्ञ ज्ञान गोचर है। अभव्य भी अध्यात्म ग्रंथ को पढ़कर तोता के समान आत्मतत्त्व पर आकर्षक उपदेश दे सकता है, वह एकादशांगी तक बन सकता है।
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