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________________ ३६० सल्लेखना मुनि वीरसागरजी को संदेश आचार्य महाराज ने वीरसागर महाराज को यह महत्वपूर्ण संदेश भेजा था "आगम के अनुसार प्रवृत्ति करना, हमारी ही तरह समाधि धारण करना और सुयोग्य शिष्य को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करना, जिससे परम्परा बराबर चले।" उन्होंने यह भी कहा था-“वीरसागर बहुत दूर है, यहां नहीं आ सकता अन्यथा यहाँ बुलाकर आचार्य पद देते।" उनके ये शब्द महत्त्व के थे, वीरसागर को हमारा आशीर्वाद कहना और कहना कि शांतभाव रखे; शोक करने की जरूरत नहीं है।" उस समय महाराज का एक-एक शब्द अनमोल था। वे बड़ी मार्मिक बातें कहते थे। क्षु.सिद्धसागर (ब्र. भरमप्पा) को महाराज ने कहा था-"रेल मोटर से मत जाना।" इस आदेश के प्रकाश में उच्चत्यागी अपना कल्याण सोच सकते हैं, कर्तव्य जान सकते हैं। शिष्यों को व्रत ग्रहण करने की प्रेरणा करते हुए वे बोले-“स्वर्ग में आओगे, तो हमारे साथी रहोगे।" अद्भुत दृश्य यम समाधि के बारहवें दिन ता. २६ अगस्त को महाराज जल लेने को उठे। उनकी चर्या में तनिक भी शिथिलता नहीं थी। मंदिर में पंचामृत से किया गया भगवान् का अभिषेक उन्होंने बड़े ध्यान से देखा। आगम के परम श्रद्धालु वे ऋषिराज ऐसे अभिषेक को आगमानुकुल मानते थे। इससे समाधि की परम पावन बेला में भी वे अभिषेक देखकर निर्मलता प्राप्त करते थे। बाद में महाराज चर्या को निकले । हजारों की भीड़ उनकी चर्या देखने को पर्वत पर एकत्रित थी। अद्भुत दृश्य था। नवधाभक्ति के बाद महाराज ने खड़ेखड़े अपनी अंजुली द्वारा थोड़ा-सा जलमात्र लिया और पश्चात् वे क्षण भर में ही बैठ गये। कुछ क्षण बाद गमनकर अपनी कुटी में आये और पुन: आत्मचिन्तन में निमग्न हो गये। आत्मचिन्तन उनका अत्यन्त प्रिय, अभ्यस्त कार्य था। संसार को वह कार्य बड़ा कठिन लगता है। वास्तव में वे महान् योगी थे। स्वाध्याय की प्रेरणा एक दिन महाराज ने कहा था-“धर्म पर अविचल श्रद्धा धारण करो।" उन्होंने यह भी । कहा था-"स्वाध्याय करो। यह स्वाध्याय परम तप है। शास्त्र के अभ्यास से आत्मा का कल्याण होता है। भगवान् की वाणी के द्वारा सम्यग्दर्शन का लाभ होता है।" शास्त्रदान का उपदेश गरीब लोग शास्त्र नहीं खरीद सकते। उनको शास्त्र का दान करो। शास्त्रदान में महान् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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