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________________ ३५४ चारित्र चक्रवर्ती का प्रवाह जगत् में बह रहा है, उसी प्रकार आत्मा की बातें बनाने वालों की भी संख्या वर्धमान दिखती है। आज का बुद्धिजीवी मनुष्य वैसे लोकविद्या के कठिन कठिन ग्रंथों में प्रवीणता प्राप्त करता है, इसी प्रकार कोई-कोई अध्यात्म शास्त्रों के थोड़े से पद्यों को कंठस्थ करते हुए उनका मनोहर विवेचन करता है, जिसे सुनते ही लोग यह सोचने लगते हैं कि इनके मिथ्यात्व का अंधकार दूर हो गया और अब इनसा सम्यक्त्वी सत्पुरुष और कहाँ मिलेगा ? आत्मा की बातें बनाने वालों में सम्यक्त्वी किसे माना जाय ? ऐसे चित्रविचित्र वातावरण में सत्य की उपलब्धि के लिए महाराज ने एक बड़ी अनुभवपूर्ण बात कही थी। वे बोले - " सम्यक्त्वी जीव की परीक्षा आस्तिक्य गुण के द्वारा हो जाती है। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा ये तीन गुण मिथ्यात्वी में भी दिखाई पड़ते हैं किन्तु आस्तिक्य गुण मिथ्यात्वी में नहीं पाया जाता ।” इस कथन के प्रकाश में आज जो सम्यकदृष्टियों की बड़ी संख्या बताई जाती है उनकी वास्तविकता का सम्यक् परीक्षण हो जाता है। जो व्यक्ति वीतराग भगवान् की वाणी को न मानकर धर्म और सदाचार के विषय में जनता की भोगोन्मुख रुचि का ध्यान रख शिथिलाचार को स्वीकार करते हुए हर्षित होते हैं, साथ ही जो अध्यात्म शास्त्र की कथा करने में असाधारण कुशलता दिखाते हैं, उनकी कलई आचार्य महाराज के द्वारा उक्त परीक्षा पद्धति से खुल जाती है। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि शुक सदृश शास्त्रों का पाठ करनेवाले व्यक्तियों के मुख से आत्मकथा का मधुर वर्णन सुनने पर भी उनको आत्मानुभूति की निधिसम्पन्न मानना भयंकर भूल की बात होगी। छिपकली की घटना एक दिन व्रतों में शास्त्र का वाचन चल रहा था । एकदम एक बड़ी छिपकली सभा में आ गई। लोग सहसा उठ गये । उस समय महाराज ने पूछा - "क्या बात है ?" किसी ने कहा "महाराज, छिपकली निकलने से लोग उठ गये ।" - सुनते ही महाराज के मुखमण्डल पर मधुर स्मित आ गई, और उन्होंने कहा - " एक छिपकली से इतना डरते हो, जब साँप आयगा तब क्या करोगे?" उनके इन शब्दों को सुनकर मुझे स्मरण आ गया, कि इन महापुरुष के शरीर पर सर्पराज स्वछंद क्रीड़ा कर चुका है फिर भी ये अविचल रहे हैं, इसलिए इस छिपकली के प्रकरण को उन्होंने विनोद तथा करुणा के भाव से देखा । इस प्रसंग द्वारा गुरुदेव के श्रेष्ठपने का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण हो जाता है। एक दिन महाराज से पूछा-“महाराज ! व्रतादि के कठिन स्वरूप का विचार करने में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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