SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 467
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकीर्णक कैसे उनका ठीक अर्थ आपके ध्यान में आ जाता है?" पूर्वसंस्कार उन्होंने कहा था- " व्रतादिक में कठिन प्रसंग आने पर हमें कुछ ऐसी अनुभूति - सी होती थी, कि यह बात हमारे पहले अनुभव में आई हो, इस पूर्वसंस्कार के कारण हमारे मार्ग की कठिनता दूर हो जाती थी।" उन्होंने यह भी बताया था कि सामायिक पूर्ण होने के पश्चात् वे अपनी शंकाओं पर विचार करते थे, उस समय विचार द्वारा अनेक शंकाओं का समाधान सहज हो जाया करता था । मनोरंजक घटना क्षमा धर्म के दिन महाराज ने कहा था- " साधु का मुख्यधर्म क्षमाभाव है । कैसा भी क्रोध उत्पन्न करने का प्रसंग आवे, साधु को क्षमा त्याग नहीं करना चाहिए।” इतना Red F महाराज के स्मृतिपथ में एक पूर्व परिचित साधु की बात आ गई जिससे उनके चेहरे पर हास्य की रेखा आ गई। ३५५ मेरे आग्रह करने पर उन्होंने बताया- ' -"एक साधु थे। किसी गृहस्थ ने उनके हाथों में अत्यंत उष्ण खीर डाल दी। उसकी उष्णता असह्य थी। उन्होंने वह खीर दाता गृहस्थ के मुख पर उछाल दी । " महाराज ने कहा, "मुनि को ऐसा नहीं करना चाहिए। असाता का उदय होने पर साधु को शांतिभाव का त्याग नहीं करना चाहिए ।" समाधि की तैयारी अपने नेत्रों की ज्योति मन्द होती देख वे कहने लगे, यदि हमारी दृष्टि अधिक मन्द हो गई तो हमें समाधिमरण लेना पड़ेगा। मैंने कहा- "महाराज ! शरीर की स्थिति अच्छी रहते हुए केवल आँख के कारण आहार का त्याग कर प्राणों का विसर्जन करने में आत्महत्या का दोष नहीं आवेगा ?" उन्होंने कहा- "निर्दोष रीति से महाव्रतों का पालन करना हमारा मुख्य कर्तव्य है। जब दृष्टि इतनी क्षीण हो जावे कि हम जीवों का पूर्णतया रक्षण न कर सकें, तब हमारे लिए एकमात्र यही मार्ग होगा, कि हम इस अहिंसा के रक्षण हेतु शरीर को अन्न-पान देना बन्द कर दें। इसमें आत्मघात का दोष नहीं है। इसका लक्ष्य है व्रतों का निर्दोष रीति से पालन करना । " - किसी ने कहा - " महाराज ! ज्योतिषी को बुलाकर आपकी आयु के विषय में पता लगाना चाहिए। " Jain Education International महाराज बोले- “हमारा ज्योतिषी पर विश्वास नहीं है । वह कोई केवली या श्रुतकेवली नहीं है। दूसरी बात यह है कि हमारा जीवन अधिक भी रहा और दृष्टि चली गई तो उस For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy