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________________ प्रकीर्णक ३५३ होती ? संसार में जो दुःख-सुख भोगना है, वे तो भोगना ही पड़ेंगे। आज अवधिज्ञानी नहीं हैं तो क्या हुआ? पहले एक कोटि की आयु होते हुए भी लोग आठ वर्ष की अवस्था में मुनि बन तप करते थे। आज प्राय: लोगों का जीवन १०० वर्ष के भीतर रहता है। थोड़ा सा जीवन शेष रहने पर भी लोगों को अपना कल्याण नहीं सूझता । जिनकी ६० वर्ष से अधिक आयु हो गई, वह यदि जीवित रहेगा तो २० वर्ष के लगभग, इसलिए ऐसे अल्प समय के रहने पर अपने कल्याण की ओर बढ़ने में तनिक भी प्रमाद नहीं करना चाहिए।" सांसारिक भोगों की सेवा में जो विपत्ति आती है, उसकी गधे की लात खाने से तुलना करते हुए कहा था-“गधे की पूंछ पकड़कर लात खाते जाना अच्छा नहीं। हम अपने प्रेमी भक्तों को धक्का लगाकर असंयम के गड्ढे से निकालते हैं जिससे आंख बन्द होने के पहले-पहले वे अपना हित कर लें।" आँख बन्द होने के पूर्व हित कर लो हमने अपने भाइयों को गृहजाल से निकाला। अरे भाई ! जंगल में आग लगने पर वह आग कई दिन तक लगती है, तब कहीं वन का दाह होता है। इसी प्रकार बहुत प्रयत्न करने पर कर्मों का दाह होता है । कर्मों की राशि एक दिन में नहीं जल जाती है। इतने में पास बैठे हुए क्षुल्लक सुमतिसागरजी ने कहा-“आचार्य महाराज ने जबरदस्ती झटका देकर गृहजाल से हमारा इस प्रकार उद्धार किया है, जिस प्रकार कोई सराफा चाँदी के तार को अपने यंत्र से झटका देकर खींचता है।" धनिकों का नहीं, संयम का मूल्य ___ महाराज ने कहा था-“हमारी दृष्टि के आगे लखपति, करोड़पति वैभवशाली का मूल्य नहीं है। लाखों रुपयादान देने वाले धनिकों की अपेक्षा इस क्षुल्लक (सुमतिसागरजी) का हमारी दृष्टि में मूल्य ज्यादा है। कारण यह आरम्भ परिग्रह का त्यागी है, इससे उसके कर्मो की विशेष निर्जरा होती है।" पागलपन छोड़ो “इसलिए हमारा सभी से यही कहना है कि पागल के समान प्रवृत्ति को छोड़कर विवेकी पुरुष के समान कार्य करना चाहिए। अज्ञानी लोग साधु को पागल समझते हैं। किन्तु साधु मोही जगत् को पागल सदृश जानता है। कारण भोगी मानव झूठी दुनिया में ममत्व करके दुःखी होता है। वास्तव में संसार का प्रयोग झूठा है।" महाराज की आलोचना इतनी मार्मिक और तत्त्वस्पर्शी होती थी, कि प्रकाण्ड विद्वानों की तर्कणा-शक्ति उसके आगे कुंठित हो जाती थी। आजकल जिस तरह से विलासिता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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