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प्रकीर्णक
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किया है, उसकी निर्जरा करने के हेतु हम उपवासादि निरंतर किया करते हैं । तप के द्वारा कर्मों की निर्जरा होती है, संवर भी होता है। इससे मन में चंचलता न होते हुए भी हम उक्त ध्येय की सिद्धि के हेतु उपवासादि तप करते हैं ।”
कर्मक्षय की भूमि कर्मभूमि
इस प्रकार की अनेक मार्मिक बातें आचार्य महाराज के मुख से सुनाई पड़ती हैं । तत्त्वार्थ सूत्र के तृतीय अध्याय में कर्मभूमि का सूत्र आया :
भरतैरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुभ्यः ॥३-३७ ॥
महाराज ने मुझसे पूछा, "कर्मभूमि का क्या अर्थ है ?"
मैंने कहा, " असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प, विद्या इन षट् कर्मों के द्वारा यहाँ जीविका की जाती है, इससे भरतादि क्षेत्रों को कर्मभूमि कहा गया है ।"
महाराज ने कर्मभूमि का अर्थ इस प्रकार कहा, "कर्मक्षय की भूमि कर्मभूमि है । इस भूमि में समस्त कर्मों का क्षय किया जाता है इससे इसे कर्मभूमि कहते हैं । "
harat द्रबिन्दु बनाते महर्षि इस भूमि को कर्मक्षय की भूमि मानते हैं । जब महाराज ने निर्वाण-दीक्षा (मुनि दीक्षा) लेने का निश्चय किया, तब वे उसके पूर्व मंगलमय भगवान् गोम्मटेश्वर की लोकोत्तर मूर्ति के दर्शनार्थ श्रवणबेलगोला गये थे । वहाँ का संस्मरण बड़ा मधुर है।
श्रवणबेलगोला का सुन्दर संस्मरण
महाराज ने कहा- "जब हम वहाँ पहुँचे, तब महाराज मैसूर धर्मभक्त श्रीमंत कृष्णराज वाडियर बहादुर भगवान् बाहुबलि की वंदनार्थ आने वाले थे, उसकी सब व्यवस्था हो रही थी। पुलिस तथा सैन्य का पहरा लग गया था । पर्वत पर कोई आदमी नहीं जा सकता था ।
उस समय क्षुल्लक विमलसागरजी ने प्रभावशाली जैन सेठ एम. एल. वर्धमानैय्या से हमारा परिचय देते हुए कहा कि - "इनको पर्वत पर जाने की व्यवस्था कराइये । ” उस समय वर्धमानैय्या सेठ का राज्य में बड़ा प्रभाव था ।
वर्धमानैय्या सेठ ने कहा, "महाराज ! कल मैसूर के नरेश के आने पर कोई भी आदमी न जा सकेगा। इससे आप आज ही संध्या को हमारे साथ ऊपर चलिए। वहाँ ही रात्रि को रहिए तथा दूसरे दिन वापिस लौट आइये । "
इससे हम संध्या को ही वर्धमानैय्या सेठ के साथ पर्वत पर चले गये । वह रात्रि हमने बाहुबली स्वामी के चरणों में व्यतीत की थी। वे क्षण अपूर्व थे। दूसरे दिन सूर्योदय होने पर हम मूर्ति के सामने के शिखर पर से देखा कि राजकीय वैभवसहित मैसूर के नरेश कृष्णराज वाडियर का वहाँ आना हुआ। "
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