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________________ ३५० चारित्र चक्रवर्ती दीजिये। यह नाटकीय व्यक्ति रहा है, इसे दीक्षा को लेकर उसे छोड़ते देर न लगेगी।" महाराज ने पायसागरजी की उच्च आत्मा को परख लिया था, इससे उनकी भावना पायसागरजी को दीक्षा देने की हो रही थी। उस समय महाराज ने पूछा- “पायसागर दीक्षा लेकर नहीं छोड़ेगा, इसका क्या प्रमाण है ? कौन जमानतदार है ?" जमानत उस समय पायसागरजी की वैराग्यभावपूर्ण मनोवृत्ति को पूर्णतया समझने वाले उनके एक श्रीमंत कुटुम्बी महाराज के समक्ष आकर बोले-“महाराज ! मैं इस बात की जमानत लेता हूँ। यदि इन्होंने दीक्षा छोड़ दी, तो मैं इस दीक्षा को आपके चरणों के समीप ग्रहण करूँगा।" इस प्रकार योग्य जमानतदार.को देखकर मधुर विनोदमय वातावरण में पायसागरजी की दीक्षा का निश्चय हुआ था। उनकी दीक्षा ऐसी ही सच्ची वैराग्ययुक्त निकली, जिस प्रकार विविध प्रकार के अभिनय करने में निपुण ब्रह्मगुलाल की मुनि दीक्षा हुई थी। पायसागर महाराज के द्वारा महान् स्व-पर कल्याण हुआ। उनके मार्मिक तथा अन्तस्तलस्पर्शी आध्यात्मिक उपदेश को सुनते ही सभी जैन- अजैन आनन्दविभोर हो जाते थे, तथा पाप प्रवृत्तियों का परित्याग करने को उत्साहित होते थे। __ आचार्य महाराज ने जिस-जिस व्यक्ति को स्वयं परीक्षा करके दीक्षा तथा अन्य व्रतादि दिए हैं, उन लोगों का जीवन अपूर्व सौरभसंपन्न तथा आत्मविकासपूर्ण रहा है। उनके व्यक्तित्व का ऐसा प्रभाव पड़ता था, कि उनके समीप कठिन से कठिन व्रत लेने का आत्मा में बल जागृत हो जाता था। असंयम के प्रवाह के विरुद्ध संयम की नौका को ले जाने वाले उन जैसे चतुर नाविक सदृश आत्मतेज तथा जिन-भक्ति युक्त आत्मा की कल्पना भी कठिन है। अनशनादि तप करने का हेतु एक दिन बाह्य तप का वर्णन करते हुए मैंने कहा था-"अनशनादि के धारण करने से मन की चंचलता दूर होती है, तथा चित्त स्थिर होता है।" इस पर आचार्य महाराज ने कहा था-“इसका क्या यह अर्थ है, कि हम जो अनशन करते हैं, बेला,तेला आदि करते हैं, वह मन की चंचलता दूर करने को करते हैं, अर्थात् हमारा मन चंचल है यह बात इससे सिद्ध होती है।" मैंने पूछा- “महाराज! आपके उपवासादि करने का क्या प्रयोजन है, जब आपके मन में चंचलता नहीं है ?" उन्होंने कहा था-"हमने पूर्व में मिथ्यात्व की अवस्था में जो महान् कर्मों का बंध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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