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________________ कोकिए ३४७ मस्तक पर सुधारकपने का मुकुट बाँधते हैं, वे जीव आत्मवंचना करते हुए दुर्गति में अवर्णनीय कष्ट भोगा करते हैं। जब जीव संयम तथा त्याग के पथ में प्रवृत्त होता है, तब ही जीवन में सुधार के सद्भावों का जागरण होता है। पतनकारी आचार-विचार पोषक का स्वयं को सुधारक कहना धीवर को दयासागर कहने समान है। सच्चा सुधारक स्वपर कल्याण में प्रयत्नशील रहता है। उपवास में आत्मजागृति का अपूर्व उदाहरण संयमी जीवन से आत्मा की भोगासक्ति दूर होती है और जीव को आत्मा का कल्याण दिखाई पड़ता है। महाराज ने बताया था, कि जब उन्होंने जयपुर में चातुर्मास किया था, तब एक गुलाबबाई नाम की महिला ने बत्तीस उपवास किए थे। उपवास पूर्ण होते ही उसके भावों मे इतनी विशुद्धि हुई कि उसने तैंतीसवें दिन केशों का लोंच करके आर्यिका की दीक्षा ले ली थी। देखने वाले लोग चकित हो गये। वास्तव में ऐसी सत्प्रवृत्तियों द्वारा जीवन का सुधार होता है। इसे सुधार कहा जायगा। हीनाचार को सुधार मानना अनुचित है। आत्मकल्याण के हेतु यथाविधि उपवास करने से इन्द्रियाँ, मन के अधीन न रहकर, आत्मा के इशारे पर चला करती हैं। मन भी चंचलता को दूर करके स्थिर हो आत्मा के चिंतन में सहायक होता है। बहुमूल्य अनुभव यह बात हमें १०८ नेमिसागर महाराज के जीवन में प्रत्यक्ष दिखाई दी। उनके उपवास का सम्भवत: १६ वाँ दिन था। हम आचार्य महाराज से अनेक धार्मिक विषयों की चर्चा करते थे। उनके समीप में थोड़ी दूर पर अपनी कुटी में नेमिसागर महाराज विराजमान थे। मैंने उनके समीप जाकर कुशल वार्ता पूछी और पश्चात् कहा-“महाराज, इस समय आपकी क्या स्थिति है ?" उन्होंने कहा था-"बहुत शांति है। कोई भी आकुलता नहीं है। बाहरी बातों की तरफ मन नहीं जाता है।" मैंने पूछा-“महाराज ! हम लोग अभी बातें कर रहे थे, वे तो आपके सुनने में आई होगी।" उन्होंने कहा- “हमें नहीं मालूम कि आप लोग आचार्य महाराज से क्या-क्या बातें कर रहे थे। हमारा ध्यान दूसरी ओर नहीं जाता है। इससे हमें बाहरी बातों का पता ही नहीं चलता है।" ऐसे समय में आत्मा की अन्तर्मुखता वृद्धिगत होती है और वह विलक्षण शांति को प्राप्त करती है; इससे कर्मों की अधिक निर्जरा होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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