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________________ ३४६ चारित्रचक्रवर्ती की होगी?" उन्होंने कहा, "हमने आगम के विपरीत आचरण नहीं किया। हम शास्त्र पढ़ते रहते थे, इससे हमें कर्तव्य-पथ का स्वयं बोध हो जाता था।" मुनिपद की बात तो दूसरी, क्षुल्लक व्रत लेने पर हमने उपाध्याय द्वारा पूर्वनिश्चित घर में आहार नहीं किया। इस कारण हमें दीक्षा लेने के बाद दो-तीन वर्ष पर्यन्त बहुत कष्ट सहन करना पड़ा, कारण लोगों को यह पता नहीं था कि अनुद्दिष्ट आहार किस प्रकार दिया जाता है। प्रभात में हम मंदिर से धर्मसाधना के उपरांत आहार के लिए निकलते थे। घर जाते हुए किसी श्रावक के पीछे-पीछे जाते थे। यदि उसने मुँह फेरकर हमें देख लिया और आहार के लिए अनुरोध किया, तो उसके घर जाते थे, अन्यथा दूसरे घर के सामने जाते थे, वहाँ के गृहस्थ ने यदि नहीं पड़गाहा, तो हम वापिस लौट आते थे और उस दिन उपवास करते थे। । दूसरे दिन भी ऐसा ही करते थे, और कभी-कभी दूसरे दिन और तीसरे दिन भी योग नहीं मिलता था, इससे हम समताभावपूर्वक उपवास करते जाते थे। इससे हमारे अन्तःकरण में कोई सन्ताप नहीं होता था। हमारा यह पक्का निश्चय था कि भगवान् की आज्ञा के खिलाफ जरा भी काम नहीं करेंगे, भले ही हमारे प्राण चले जावें। उस समय उपाध्याय लोग हमारे विरुद्ध हो गये थे, कारण उनके द्वारा निश्चित किये गये धर में आहार को न जाने से उनकी हानि होती थी, क्योंकि जिस घर में साधु का आहार होता था, वहाँ उपाध्याय भी सानन्द भोजन करता था। हमारी प्रवृत्ति से उपाध्यायों का स्वार्थपोषण रुक गया, इससे वे हमारे मार्ग के कंटक हो गए। मुनिगण भी हमारे प्रतिकूल हो कहने लगे थे कि इस काल के अनुसार तुमको प्रवृत्ति करना चाहिए अथवा प्राण-विसर्जन करना होंगे। समय को ध्यान में रखना चाहिए। सन्मार्ग दर्शन इस कठिन परिस्थिति में हमने आगम-कथित मार्ग का परित्याग नहीं किया। हम सोचते थे, जब तक अन्तराय कर्म का उदय होगा, तब तक आहार का योग नहीं मिलेगा। धीरे-धीरे लोगों को हमारी प्रवृत्ति का बोध हो चला और फिर प्रतिकूल परिस्थिति अनुकूल बनती गई। इससे यह ज्ञात होता है, कि महाराज ने मुनिमार्ग की शिथिलता को सुधारने में सच्चे सुधारक का कार्य किया था। मिथ्या प्रवृत्ति को दूर करके सच्ची बातों का प्रचार ही सच्चा सुधार है। आज विषयलोलुपी लोग धर्ममार्ग को छोड़कर पतनकारी क्रियाओं में प्रवृत्ति को सुधार का कार्य कहते हैं। सच्चा सुधार आचार्य महाराज सदृश आत्मबली महान् आत्माओं द्वारा सम्पन्न होता है। असंयमी जीवन की वृद्धि करते हुए जो अपने www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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