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बयालास
चारित्र चक्रवता जहरीले कीटाणुओं ने शरीर में प्रवेश किया था।"
हिन्दी जगत् के सुपरिचित विद्वान पं. रामनरेश त्रिपाठी ने 'नवनीत'बम्बई में वैदिक मिशनरी 'रुचिराम की मक्का यात्रा'एक लेख छपाया था, उसमें उन्होंने लिखा था, "अदन में दो माह रहने के बाद पंडित रुचिरामजी जुकार मुकाम में पहुँचे। वहाँ उन्होंने दो दिन का पानी भर लिया। बद्दुओं ने उनकी केटली में ऊटनी का दूध भर दिया। कुछ खजूर भी दिए। चलते-चलते वे रास्ता भूल गए और शाम को एक जंगल में जा निकले। उन्होंने लकड़ियाँ जमाकर आग जलायी, खाना पकाया। चाय पी और वहीं सो गए। आधा दूध सोते समय पी लिया और आधा रात्रि में जब प्यास लगी, तब पी लिया। सबेरे उनको जोर का बुखार चढ़ आया। केटली को देखा, तो सारी केटली चीटियों से भरो थी। बुखार का कारण समझ में आ गया। आधी रात के दूध में चीटियाँ भी थी, जिन्हें वे पी गये थे।” (नवनीत-हिन्दी मासिक, नवम्बर १९६८)
इन उदाहरणों के प्रकाश में विवेकी मानव अपना कर्त्तव्य सोच सकता है। धर्म के नाम पर न सही, अपने हित के नाम पर तो ऐसे बहुत-से नियमों को सहज ही अपना सकता है, किन्तु विषयासक्ति के कारण मनुष्य विकारों से विमुक्त होने का पुरूषार्थ नहीं करता है और दैव की गोद से बच्चे की तरह सोया करता है। आत्मविकास के लिये गीता का अध्याय ६, श्लोक ५ का यह उपदेश विश्व के लिये हितप्रद है -
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
__ आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥ अर्थ : अपने द्वारा अपनी आत्मा का उद्धार करे और अपनी आत्मा को अधोगति में न पहुँचावे, क्योंकि जीवात्मा आप ही अपना मित्र है, आप ही अपना शत्रु है। यह जीव
आत्मशक्ति तथा कर्त्तव्य को भूलकर स्वयं का शत्रु बन रहा है। यह अपने अमूल्य नरजन्म को विषय भोग में व्यतीत करता है।
बालस्तावत् क्रीड़ासक्तः, तरुणस्तावत् तरूणीरक्तः।
वृद्धस्तावत् चिन्तामग्नः परमे ब्रह्मणि कोपि न लग्नः ॥ इसका भाव इस हिन्दी पद्य में दिया गया है -
खेलकूद में बीता बचपन, रमणी राग रङ्ग-रत यौवन।
शेष समय चिन्ता में डूबा, इससे हो कब ब्रह्माराधन॥ जिस प्रकार कुम्भकार का चक्र पूर्व संस्कार के प्रभाव से पुनः गमन हेतु प्रेरणा न मिलने पर भी भ्रमण करता रहता है. इसी प्रकार जिनके पास आत्मशोधन तथा जीवन को
१. "भजगोविन्दम स्तोत्र" -चक्रवर्ती राजगोपालाचारी (प.७) Jain Education International
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