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________________ आगम ३१४ प्रयत्न किए कर्म के विशेष क्षयोपशम से नित्य - निगोद की विकास विहीन स्थिति से निकलकर मनुष्य पर्याय पाता है, आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त में सम्यक्त्वी बनकर सकलसंयमी हो केवली बन निर्वाण को प्राप्त कर लेता है । भरतेश्वर के पुत्र भद्रविवर्धन आदि निगोद से आकर तिर्यंच पर्याय पाकर दूसरे भव में मनुष्य हो दीक्षा ले मोक्ष गये थे। उस जीव के बुद्धिपूर्वक पौरुष के बिना ही संसार भ्रमण समीप आ जाने से सब बातों की अनुकूलता हो जाती है। जब तक संसार सिन्धु का तट समीप नहीं आया है, तब तक संतरण निमित्त हस्तचरण संचालन से क्या इष्ट सिद्धि होगी ? इसीलिए आसन्नभव्यता को सम्यक्त्व का विशिष्ट कारण कहा गया है। सोमदेव सूरि ने यशस्तिलक में लिखा है : आसन्नभव्यता - कर्म - हानि - संज्ञित्व - शुद्धपरिणामाः । सम्यक्त्व हे तुरन्तर्बाह्योप्युपदेशकादिश्च ॥ आसन्न अर्थात् निकट भव्यपना, कर्म की विशेष निर्जरा, संज्ञीपना, शुद्ध परिणाम से सम्यक्त्व के अंतरंग कारण हैं तथा बाह्य कारण उपदेशादिक हैं। अकलंक स्वामी का कथन है, “अनादि मिथ्यात्वी जीव काललब्धि आदि के द्वारा सम्यक्त्वघातक कर्म पुंज का उपशमन करता है। यह सम्यक्त्व उसे प्राप्त होता है, जिसके पंचपरावर्तन रूप संसार में अर्द्धपुद्गल परावर्तन रूप परिभ्रमण का काल शेष रह गया है। दूसरी बात कर्मों की स्थिति के सम्बन्ध में है। जिसके आगामी बंधने वाले कर्म अन्तः कोड़ा - कोड़ी सागर प्रमाण स्थिति से अधिक नहीं बँधते हैं तथा पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति संख्यात हजार सागर न्यून अंतः कोड़ा - कोड़ी सागर प्रमाण होती है, उसके ही सम्यक्त्व हो सकता है, इस प्रकार की आंतरिक सामग्री की उपलब्धि बुद्धिपूर्वक पुरुष प्रयत्न द्वारा साध्य नहीं होती। सातवें नरक का नारकी जीव अन्तरंग सामग्री की अनुकूलता तथा वेदनाभिभव रूप निमित्त द्वारा सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है। वहाँ कौन-सा बुद्धिपूर्वक प्रयत्न- पुरुषार्थ उस जीव के होता है ? अवस्था विशेष में जीव के भावों का तद्रूप परिणमन होता है। जैसे एक विद्वान् ने कहा है कि माता के साथ श्रृंगार रस के गीत बालिका भी गाती है, किन्तु उसे वह स्वाद प्राप्त नहीं होता है, जो वयस्क हो जाने वाली माता को प्राप्त होता है। उसकी अवस्था अभी कली के रूप में है । वह कली जब विकसित हो जाती है, तब उसे भी उन गीतों से रागात्मक रस मिलने लगता है। इसी प्रकार संसार सिंधु के तट की समीपता आने पर जीव को आत्मकल्याण की बातों में रस आने लगता है। वह रस का उद्गम अवस्था - विशेष जन्य है, इसी प्रकार आत्मतत्त्व में रुचि होकर सच्चा रस तब आता है, जब कर्मोदय की मंदता होती है तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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