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चारित्र चक्रवर्ती एक बार मैंने आचार्यश्री से पूछा था, “महाराज! आज लोग चारित्र को व्यर्थ की वस्तु सोचकर सम्यक्त्व को ही सार रूप मानते-बताते हैं। मोक्ष का उपाय क्या है ?
महाराज ने कहा, “सम्यक्त्व के होते हुए भी जीव मोक्ष नहीं पाता है। ज्ञान की स्थिति निराली है। वह तो गंगा गए गंगादास, जमुना गए जमुनादास' के समान श्रद्धा के अनुसार अपना रंग पलटता है। वही ज्ञान सम्यक् श्रद्धा सहित सम्यक्त्व हो जाता है, और उसके अभाव में वही ज्ञान मिथ्या हो जाता है, इसलिए ज्ञान का भी मूल्य नहीं है।" मूल्य किसका मैंने कहा, “तब फिर मूल्य किसका है ?"
महाराज ने कहा, “मूल्य है सम्यक्चारित्र का। सम्यक्चारित्र होने पर नियम से मोक्ष होता है।"
मैंने कहा, “महाराज ! आपका उत्तर बड़ा मार्मिक है। आपने सम्यक् शब्द युक्त चारित्र को पकड़कर सम्यक्त्व को भी बुला लिया और सम्यक्त्व होने से उसका अभिन्न हृदय मित्र ज्ञान भी आ गया।"
महाराज ने कहा, “सम्यक्त्व और चारित्र का घनिष्ट सम्बन्ध है, तब एक की ही प्रशंसा क्यों की जाती है।
"सम्यक्त्व की प्राप्ति दैव के अधीन है, चारित्र पुरुषार्थ के अधीन है।" यह कहते हुए आचार्य महाराज ने कहा, “उपादान सम्यक्त्व है और उसका निमित्त कारण चारित्र। निमित्त भी बलवान् है। एक भव्य द्रव्यलिंगी मुनि मरकर देव पर्याय में गया, वहाँ से समवशरण में जाकर वह सम्यक्त्वी बन जाता है।" क्या सम्यक्त्व दैवाधीन है ?
सम्यक्त्व की प्राप्ति दैव के अधीन है, यह बात किस अपेक्षा से कही गई यह विचारणीय है। जब पुरुष आत्मा का पर्यायवाची है और उस आत्मा की शुद्ध अवस्था की प्राप्ति मोक्ष पुरुषार्थ है, तब सम्यग्दर्शन को पुरुषार्थ माननाचाहिए, क्योंकि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र रूप मोक्ष है। मोक्ष पुरुषार्थ है, अत: रत्नत्रय भी पुरुषार्थ सिद्ध होते हैं। इस दृष्टि से जब सम्यक्दर्शन पुरुषार्थ सिद्ध होता है, तब उसे दैव के अधीन कैसे कहा जायेगा, यह समस्या विचारणीय है ? __ जिनागम के परिशीलन से ज्ञात होता है कि सम्यक्त्व की उपलब्धि बुद्धिपूर्वक पुरुष प्रयत्न के साथ अन्वय-व्यतिरेकता नहीं रखती है। यथासम्भव सब उपायों के करते हुए भी द्रव्य लिंगी मुनि उस सम्यक्त्व को नहीं प्राप्त कर पाता है और दूसरा जीवन बिना
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