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________________ आगम जन्मान्तर में पति-पत्नि होते रहे तथा एक बार वे देव पर्याय में पहुँचे । इस वणिक पुत्र ने मरण कर पीछा किया और प्रत्येक पर्याय में पूर्व बैर के कारण विनाश कार्य करता रहा। इसी जीव ने एक बार सत्समागम को प्राप्त कर महाव्रत धारण किया । घोर तप किया। एक बार मुनिराज के दर्शन को वे देव-देवी आये । मुनिराज को पूर्व बैर विरोध की बात स्मरण कराई, तो इन मुनिश्वर ने उस दुष्कृत्व के प्रति खेद भाव व्यक्त किया। इसके अनन्तर उन दोनों सुर पति ने पुनः प्रश्न किया “भगवन् ! यदि वे विरोधी जीव आपके समीप आ जावें, तो आप क्या करेंगे ?" मुनिराज ने कहा - "हम उनसे क्षमा माँगेगे।” उन्होंने कहा, "हे स्वामिन्! वे और कोई नहीं, हम ही हैं । तब मुनिराज ने उनसे अपने अपराधों की क्षमा माँगी। अब वे शल्य रहित हो गए। उन्होंने घोर तपस्या की और मोक्ष पदवी प्राप्त की। इस कथा में यह रहस्य है, कि जब तक संसार निकट नहीं रहता, तब तक विवेक का भाव नहीं जागता है ।" स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा में लिखा है कि नर, तिर्यंच, देव, नारकी इन चारों गति वाला, भव्य, संज्ञी, सुविशुद्ध, जागृत, पर्याप्तक तथा संसार के तट के निकट वाला जीव सम्यक्त्व को प्राप्त करता है । मरीचिकुमार का संसार तट निकट नहीं आया था, इससे धर्मतीर्थंकर आदिप्रभु के पुत्र भरतेश्वर सदृश तत्त्वज्ञानी के सुसंस्कार - संस्कृत गृह में जन्मधारण करते हुए तथा श्रेष्ठ सामग्री समन्वित होते हुए भी उस जीव को बोधि का लाभ न हुआ और संसार का तट निकट आ जाने पर क्रूरता की मूर्ति मृगेन्द्र बनने पर सर्वसाधन शून्य वही जीव दया का सागर बन गया और उसने महावीर बनने का पराक्रम प्रारंभ करके कुछ ही भवों में महतिमहावीर - वर्धमान की महिमा को प्राप्त किया, जिनके पुण्यतीर्थ की छाया में सभी लोग विद्यमान हैं। संसार से निकलने की समीपता यदि कुछ कम हो, तो जीव के हाथ में आया हुआ सम्यक्त्व रत्न भी छूट जाता है। ऐसे अवसर एक - दो-चार बार नहीं आते। उपशम और क्षयोपशम सम्यक्त्व असंख्य बार तक आते हैं, अपनी ज्योति को दिखाते हैं और फिर छोड़कर चले जाते हैं। कार्तिकेय स्वामी ने कहा है कि यह जीव अधिक से अधिक असंख्यात् बार तक उपशम, क्षयोपशम सम्यक्त्व, अनंतानुबंधी कषाय के विनाश तथा देशव्रत को प्राप्त करके छोड़ दिया करता है । ' सम्यक्त्व के साथ जब तक चारित्र का पूर्ण योग नहीं है, तब तक जीव को निःश्रेयस का लाभ नहीं होता है। १. ३१२ Jain Education International हिदि मुंचति जीवो वे सम्मत्ते असंखवाराओ । पढभकसायविणासं देसवयं कुणइ उक्किहं ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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