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________________ ३११ आध्यात्मिक कलाकार संयम से गिरते हुए व्यक्ति को किस प्रकार धर्म में स्थिर करना, यह कला तो सच्चे कलाकार सदृश इन गुरुचरणों में ही सीखी जा सकती थी। आज के युग में किसी में थोड़ासा दोष देखा, तो अखबारों में लेख द्वारा महा ढोल बजने लगता है। कई पत्र वाले ताजे समाचार जानकर उसको स्थान देते हैं। कई संपादक संयम से ऐसा ही वैरभाव रखते हैं, जैसे व्याघ्र गौवत्स से । अतः वे उनमें मसाला लगाकर समाचार प्रकाशित करते हैं, किन्तु आचार्य महाराज अपने प्रेममय शासन द्वारा कुपथ पर जाने वालों को धर्म मार्ग में स्थिर करते थे। जीवन में भूल देखकर उपगूहन अंग पालन करते हुए उस जीव का कल्याण करने में भी आचार्य महाराज का असाधारण स्थान था। किसी साधु में जरा सा दोष दिखा कि हमारे मन उसका हल्ला मचाने का शौक पैदा हो जाता है। आचार्य महाराज की पद्धति भिन्न थी । सदाचार में शिथिलता देख, आज समाज में जो ढोल पीटने की प्रवृत्ति है, वह ठीक नहीं है । भ्रष्ट साधु चारित्र चक्रवर्ती आचार्य महाराज एक दिन कह रहे थे, “भ्रष्ट साधु को एकान्त में समझाना । शान्तिपूर्वक समझाने पर भी वह न माने, तो उसकी भक्ति करना छोड़ दो, किन्तु इसका आंदोलन नहीं करना । ऐसा करने से सम्यक्त्व की हानि होती है, उपगूहन अंग नहीं पलता है। " सम्यक्दर्शन पर प्रकाश एक बार शेडवाल में आचार्य महाराज के मुख से सम्यक्दर्शन का अनुभूति पुरस्सर बड़ा मार्मिक और अत्यंत सुन्दर विवेचन सुना था । महाराज ने कहा था, "जब तक जीव का संसार तट निकट नहीं आता है, तब तक वह आत्मा के हित में प्रवृत्त नहीं होता है। संसार के निकट आते ही वह मोक्षमार्ग में लग जाता है। आसन्न भव्यता संसार से छूटने बड़ा कारण है। महाराज ने इस संबंध में एक कथा सुनाई थी। एक वैश्य पुत्र एक श्रेष्ठि कन्या पर आसक्त हो गया। कमाई करने हेतु वह वैश्य पुत्र विदेश गया। उस समय यह बात निश्चित हुई थी कि यदि वह बारह वर्ष के भीतर वापिस आ जायेगा तो उस श्रेष्ठि कन्या का विवाह उसके साथ कर दिया जायगा, अन्यथा नहीं। कुछ ऐसी विषम परिस्थिति आ गई कि बारह वर्ष के भीतर वह न लौट सका। इसलिए वह कन्या दूसरे व्यक्ति से विवाही गई। पश्चात् प्रवासी वणिक आया। उसे बड़ी निराशा हुई तथा भयंकर विद्वेष - अग्नि उसके अंत: करण को जलाने लगी। एक दिन उसने द्वेषवश उस दम्पत्ति को मार डाला। रागवश जो कन्या उसकी आसक्ति तथा ममता का केन्द्र थी, वही उसकी द्वेषाग्नि का हेतु बनी। भावों का विचित्र परिणमन होता है। वे स्त्री और पुरुष मर कर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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