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________________ आगम ३१० प्रसंग आए, किन्तु उनकी दृष्टि अमूढ़ता से अलंकृत रही है। जुगुप्सा ग्लानि का भी इसमें दर्शन नहीं होने से वे निर्जुगुप्सासंपन्न थे। सुन्दर वस्तु में अनुरुक्ति नहीं, असुन्दर वीभत्स पदार्थ में ग्लानि नहीं। उनकी संतुलित दृष्टि पुद्गल के परिणमनों को देखती हुई राग तथा द्वेष की विकृति से विमुक्त दिखती थी। एक दिन बारामती में मैंने देखाथा कि महाराज बैठे हैं। एक बच्चे ने पास की भूमि को ही गंदा कर दिया है। मैं पास से जरा दूर सरक गया। मेरे मन में तो ग्लानि का भाव जगा, किन्तु आचार्य महाराज ने उस पर ध्यान नहीं दिया और न ग्लानि ही प्रदर्शित की। स्थान तो तत्कालही स्वच्छ कर दिया गया, किन्तु इस प्रसंग ने निर्विचिकित्सा अंग का प्रत्यक्ष दर्शन करा दिया। साधर्मियों पर अपार वात्सल्य है। दूसरे के दुःख दूर करने को वे एक क्षण भी देर नहीं करते थे। दया का अक्षय भंडार उनके पास था। धर्मप्रभावना की तो वे साक्षात् मूर्ति थे। सिंहनिष्क्रीडित सदृश तपश्चर्या द्वारा उन्होंने इतनी प्रभावना की थी कि उसे देख लोगों को ऐसा लगता था मानो महाराज के जीवन में चतुर्थकालीन मंगल प्रवृत्तियाँ तथा अद्भूत शक्तियाँ विद्यमान हैं। कितने धर्म के महोत्सव इन विभूति के साधुत्व अंगीकार करने के अनन्तर हुए, इसकी गणना करना कठिन है। उनकी साक्षात् मूर्ति की बात दूसरी, उनकी सौम्य मुद्रायुक्त चित्त के दर्शन से बड़े-बड़े लोगों का मन उनकी ओर खिंचता था तथा हृदय उनकी अभिवंदना करता था। महान् प्रभावपूर्ण जीवन सन् १९५० के भाद्रपद में मैंने देखा, भारत सरकार के मंत्री श्री गुलजारीलालनंदा महाराज की सेवा में आये थे। उन्होंने अत्यंत भक्ति से प्रणाम किया था। आन्तरिक समाधान को प्राप्त कर वे चले गये। बम्बई सरकार के अर्थमंत्री दीवान बहादुर ए. बी. लढे अनेक बार महाराज की सेवा में आये थे। एक बार उनके जीवन में गम्भीर विचार उत्पन्न हुए और उन्होंने पंच अणुव्रत ग्रहण कर महाराज का शिष्यत्व स्वीकार किया था। जयपुर चातुर्मास के समय मजिस्ट्रेट ने आकर आचार्य महाराज से पंचम प्रतिमा के व्रत लिये थे। उनकी धर्मपत्नी ने भी संयम धारण करने में पतिदेव का अनुकरण किया। अजमेर के ट्रेजरी आफीसर बाबू मांगीलालजी दोशी ने सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमा ली थी। महाराज के पास क्षुल्लक, ऐलक बनने वाले मुनिपद को स्वीकार करने वाले अनेक व्यक्ति थे। इस तरह आचार्यश्री तथा उनके जीवन द्वारा धर्म की अद्भुत प्रभावना तथा जागृति हुई थी। यदि यह कहा जाय कि लोगों में ऐसी प्रभावना करने वाली दूसरी आत्मा न देखी और न सुनी, तो तनिक भी अत्युक्ति नहीं होगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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